सीरवी समाज - ब्लॉग

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Posted By : Posted By Manohar Mysore on 01 Jun 2020, 04:15:00
सिरवी समाज डांट काम की टीम को बहुत बहुत बधाई जिन्होंने भारत में लॉकडाउन की घडी में समाज में एक अच्छी पहल करके हर शनिवार को दिवान साहब से सीधा संवाद करके अन छुए पहलुओं को दिवान साहब के श्री मुख से सुनने को मिल रहा है इसी कड़ी में गत शनिवार को एक अच्छी बात यह भी हुईं की आरती में खिलजी के स्थान पर आसूर शब्द बोला जायेगा।ये प्रस्ताव MP से CA भगवान जी लछेटा ,अध्यक्ष सीरवी समाज ट्रस्ट इंदौर वालों के द्बारा लाया गया था इसके ऊपर दिवान साहब ने अपनी इच्छा प्रकट करते हुए मोखीक स्वीकृति दे दी गई बहुत अच्छा हुआ हमारे मन में भी बहुत दिनों से बदलाव की इच्छा थी

उसी तरह दो और बदलाव की जरूरत है हो सकता है में गलत भी हो सकता हु।

1-जब हमारे यहां माताजी अम्बापुर से लेकर बिलाड़ा तक पथारे साथ में नन्दी(पोठीया) था नन्दी यानी धर्म माताजी ने हमेशा धर्म को साथ लेकर चलते थे धर्म का उपदेश देते थे आज बिलाड़ा में भी मन्दीर में जाने से पहले नन्दी की स्थापना है। नन्दी का दर्शन कर मन्दीर में जाते हैं नन्दी यानी धर्म। धर्म यानी शिव । शिवजी के दर्शन कर मन्दीर में जाते हैं बिलाड़ा की भांति ह..
Posted By : Manohar Seervi Posted By on 10 May 2020, 11:17:09
सीरवी समाजबंधू आर्थिक रूप से अन्य कई समाजों के मुकाबले संपन्न है अर्थात धनि है, धनवान है, ज्ञानी है, दानी है, बुद्धिमान है, चारित्रसम्पन्न है, सुस्वभावी है, शिक्षित (एज्युकेटेड) है, मिलनसार है, ईमानदार है, व्यापार में होशियार है, मेहनती है फिर भी समाज दिन-ब-दिन पिछड़ता जा रहा है, अपनी पहचान को, अपने गौरव को खोता जा रहा है... क्यों??? क्योंकि एकता का आभाव है । समाज में एकता की कमी है । एकता से बढ़कर कोई शक्ति नहीं है । एकता ही समाजोत्थान का आधार है। जो समाज संगठित होगा, एकता के सूत्र में बंधा होगा उसकी प्रगति को कोई रोक नहीं सकता किन्तु जहाँ एकता नहीं है वह समाज ना प्रगति कर सकता है, ना समृद्धि पा सकता है और ना अपने सम्मान को, अपने गौरव को कायम रख सकता है। सीरवी समाज इसका जीता-जागता उदहारण है । हम समाजबंधु एकसाथ रहते तो है लेकिन क्या हम उन्नत्ति-प्रगति के लिए एक-दूजे का साथ देते है? नहीं ; तो सिर्फ एकसाथ रहने का कोई मतलब नहीं । एकसाथ इस शब्द को कोई अर्थ तभी है जब हम एकसाथ रहे भी और एक-दूजे का साथ दे भी । ऐसी एकता को ही सही मायने में 'एकता' (Unity) कहा जाता है ।

समाज में एकता को क..
Posted By : Posted By seervi on 25 Apr 2020, 09:59:08
घूंघट प्रथा - एक कुप्रथा
समाज की समस्या : हमारे घर की औरतें घूंघट नहीं निकलती, वो सलवार कमीज़ और जीन्स पहनती है। वो आज के जमाने के हिसाब से चलती है। वो हमारी संस्कृति का अनुसरण नहीं करती हैं ।

एक औरत की आवाज़: घूंघट प्रथा एक कुप्रथा है जिसका मुझे अनुसरण नहीं करना है। इससे पहले कि मै अपने विचार प्रस्तुत करू उदाहरण के तौर पर एक कहानी प्रस्तुत करना चाहती हूं ।
"एक अंधे दंपति को खाना बनाने में बड़ी परेशानी होती थी,जब अंधी खाना बनाती थी एक कुता आकर ले जाता था। तब अंधे को एक समजदार व्यक्ति ने आइडिया दिया कि तुम डंडा लेकर थोड़ी थोड़ी देर में फटकते रेहना जब तक अंधी रोटी बनाएं।
जब कुत्ता तुमारे हाथ मै डंडा देखेगा और डंडे की खटखट सुनेगा तो डर के भाग जाएगा रोटियां सुरक्षित रहेगी। यह युक्ति काम कर गयी अंधे दंपति खुश हो गए।
कुछ वर्षो बाद उनके घर मै एक पूत्र हुआ जिसकी आंखे भी थी और वो एकदम स्वस्थ था। उसे पढ़ा लिखाकर बड़ा किया । उसकी शादी हुई और बहू आयी। बहू जैसे ही रोटी बनाने लगी तो लड़का डंडा लेकर दरवाजे पर खटखट करने लगा। बहू ने पूछा यह क्या कर रहे हो और क्यो ? तो ..
Posted By : Posted By गोपाराम पंवार on 11 Apr 2020, 07:10:41
कुरितियों एंव रूढिवादी परम्पराओं के अधीन होना कायरता हैं ओर विरोध करना पुरूषार्थ हैं।

एक तेरहवीं के दिन मैं बैठा था। पूरे कुनबे के लोग पगड़ी बांध रहे थे। किसी के ससुराल वाले लाये तो किसी के ननिहाल वाले लाये। मैंने एक बुजुर्ग से पूछा कि आपके दादा जी मरे थे तो क्या सभी पौतों के लिए पगड़ी लाई व बंधाई गई? बताया कि सिर्फ मेरे ताऊ जी के पगड़ी बांधी गई थी।

दरअसल पहले सामाजिक ताना-बाना बहुत मजबूत था और किसी परिवार के बुजुर्ग की मृत्यु पर समाज के फैसलों में भागीदारी के लिए एक उत्तराधिकारी चुना जाता था।घर में जो भी बड़ा होता था उसको तेहरवीं के दिन पगड़ी बांधकर विधिवत उत्तराधिकारी मान लिया जाता था।

आज पूरे कुनबे अर्थात दादा की मौत पर दादा के भाई के पौतों को भी पगड़ी बंधाई जाती है। यानि मरा एक और उत्तराधिकारी नियुक्त कर दिए जाते है अनेक, मौत व उत्तराधिकारी नियुक्ति की प्रक्रियाओं को महोत्सव का स्वरूप दे दिया गया है।

किसी की मौत होती है तो घर में निराशा व मायूसी का माहौल पैदा हो ही जाता है तो उसको ढांढस बंधाने का कर्तव्य समाज का होता है।

जिसकी मौत होती ..
Posted By : Posted By seervi on 09 Apr 2020, 11:32:35
व्यावहारिक जगत में श्री आई माताजी को साथ रखिये

श्री आई माताजी में विश्वास की कमी के कारण, दूषित वातावरण का असर पडने के कारण एवं पूर्व के संस्कारों के कारण बहुत बार हम लोगों के मन में परिवार को लेकर चिन्ताएँ आ सकती हैं। उस समय जगत का महत्व दैवी शक्ति की अपेक्षा अधिक हो जाता है। वस्तुतः जागतिक चिन्ता तभी आती, जब दैवी शक्ति गौण हो जाती हैं और जगत् प्रधान। इसलिये खूब सावधान रहना चाहिये कि एक क्षण के लिये भी श्री आई माताजी गौण नहीं होने पायें। आप विश्वास रक्खें कि जैसे-जैसे माताजी को मुख्य उद्देश्य मानते जायेंगे वैसे-वैसे यह चिन्ता हटती जायगी। एक बात और है---साधना मार्ग में खासकर श्री आई माताजी-शरणागति में किसी भी जागतिक चिन्ता को मन में स्थान ही नहीं देना चाहिये। यदि हम माताजी के हो गये, नहीं, सदैव ही माताजी के थे, हैं और रहेंगे तो हमसे सम्बद्ध यावन्मात्र पदार्थ भी माताजी के ही हैं। क्या माताजी को अपनी चीजों का ध्यान नहीं है ? क्या हम उनसे ज्यादा चतुर एवं बुद्धिमान हैं, जो उनकी अपेक्षा भी अधिक अच्छी तरह किसी चीज की संभाल करेंगे ? वस्तुतः सच्ची बात तो यह ..
Posted By : Posted By seervi on 02 Apr 2020, 06:14:37
जय श्री आईजी री सा
👏🏽👏🏽
👉🏽 हमारे सामाजिक परिवेश में बहुत सारी ऐसी बीमारियां होती है जो खाने-पीने और छूने से फैलती है। वर्तमान समय में कोरोना विषाणु जनित रोग जो चल रहा है वह भी एक छूत की बीमारी ही है ।
सीरवी समाज में काफी लंबे समय से एक कुप्रथा चली आ रही है सहभोज यानी कि साथ में बैठकर एक ही बर्तन में भोजन करना।
सह भोज को मैं कुप्रथा इसलिए कह रहा हूं क्योंकि इससे केवल मात्र नुकसान ही है चाहे वह भौतिक रूप से हो या फिर चाहे आध्यात्मिक रूप से ।
भौतिक रूप से नुकसान का मतलब हमारे अमूल्य मानव शरीर को इस प्रथा द्वारा होने वाली बीमारी से है।
कोरोना रोग के अलावा भी ऐसी बहुत सारी छुआछूत की बीमारियां कम्युनिकेबल डिसीज है जो मात्र साथ में बैठकर भोजन करने से होती है हां यह अलग बात है कि उन बीमारियों का इनक्यूबेशन पीरियड काफी लंबा होता है और वह हमारे शरीर पर कोरोनावायरस की तरह तुरंत असर ना डाल कर बहुत लंबे समय बाद असर डालती है यानी कि हमको बीमार करती है।
जैसे - कोलेरा हेपेटाइटिस ए टाइफाइड कोरोना वायरस अन्य।
इस प्रकार के सभी रोग मुख्य रूप से सहभोज से ही होते ..
Posted By : Posted By seervi on 13 Mar 2020, 08:27:52
बाल कल्याण समिति
https://www.facebook.com/Adv-Rajendra-Singh-Seervi-101772761458137

किशोर न्याय (बच्चों की देखभाल और संरक्षण) अधिनियम, 2015 की धारा -27 के तहत प्रावधानों के अनुसार और किशोर न्याय (बच्चों की देखभाल और संरक्षण) नियम -15 के नियम -15 के साथ पढ़ें, मॉडल नियम, 2016 शक्तियों और कर्तव्यों के निर्वहन के लिए जिलों में कल्याण समितियां समय-समय पर इस अधिनियम और नियम के तहत बच्चों की देखभाल और सुरक्षा की आवश्यकता के संबंध में ऐसी समितियों को सम्मानित करती हैं।

किशोर न्याय (बच्चों की देखभाल और संरक्षण) अधिनियम 2015 की धारा -29 के अनुसार, समिति के पास देखभाल और सुरक्षा की आवश्यकता, बच्चों की देखभाल, संरक्षण, उपचार, विकास और पुनर्वास के लिए मामलों के निपटान का अधिकार होगा, साथ ही उनकी बुनियादी जरूरतों और सुरक्षा के लिए। जहां किसी भी क्षेत्र के लिए एक समिति का गठन किया गया है, ऐसी समिति किसी भी अन्य कानून में निहित किसी भी चीज के बावजूद, लेकिन इस अधिनियम में दिए गए अन्यथा स्पष्ट रूप से सहेजने के अलावा, इस अधिनियम के तहत सभी कार्यवाही से विशेष रूप से निपटने की शक्ति है बच्चों की देखभाल और सुरक्षा की जरूरत ह..
Posted By : Raju Seervi Posted By on 08 Mar 2020, 12:20:50
समाज को गतिशील, विकासोन्मुख एवं प्रतिशील बनाने के लिए संगठित होना एक आवश्यकता हैं। संगठन विहीन समाज बिना पतवार के नाव जैसी होती है , जिसकी कोई दिशा नहीं होती और न ही कोई उद्देश्य। विश्व के समस्त समाज शास्त्रियों ने समाज और संगठन के बारे में सदैव यही बताया है, कि संगठन समाज का प्राण है।  इसी परिप्रेक्ष्य में आगे बढ़ते हुए सीरवीयों के कल्याण हेतु सीरवी समाज को संगठित करने, एकजुट करने का कार्य पिछले कई वर्षों से किया जा रहा है। विभिन्न स्तरों पर संगठन का निर्माण किया गया है और संगठन को गति प्रदान करने के लिए समर्पित, सेवा भाव से युक्त कार्यकर्ताओं की सेवायें ली जाती है। अखिल भारतीय स्तर से लेकर ग्राम स्तर तक संगठन को जोड़ने का कार्य चल रहा हैं।  संगठन के लोग अपना-अपना कार्य कर रहे है। 

आज के परिप्रेक्ष्य में जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में राजनीती ने अपना प्रभाव डाला है।  हमारी सोच, हमारे कार्य, हमारे तौर तरिके ही सभी राजनीती से प्रभावित है , स्वाभाविक है। संगठन भी अछूता नहीं है। राजनीति की कूटनीति सर्वव्यापी हो चुकी है।  व्यक्ति का मांस इस छूत की बी..
Posted By : Manohar Seervi Posted By on 06 Mar 2020, 03:44:47
आज जमाना कंपीटिशन (प्रतिस्पर्धा) का है देश में कई बच्चे सिर्फ पढ़ाई कर रहे है, कुछ पढ़ाई के साथ में पार्ट टाइम जॉब कर रहे है, तो कछ कंपीटिशन (प्रतियोगीपरीक्षाओं की तैयारी में लगे है पहले का जमाना कुछ और था पहले लोग पढ़ाई या नौकरी को लेकर इतने जागरूक नहीं थे, लेकिन आज समय के साथ साथ सब बदलता जा रहा है। आज युवा जागरूक होता जा रहा है। सबके अन्दर जुनून है, कुछ कर दिखाने की, कुछ बनने की ओर अपने लक्ष्य को हासिल करने की और उसे पूरा करते भी नजर आते है। आपने अक्सर देखा होगा कि कुछ लोग अपने लक्ष्य को अपने भाग्य के सहारे छोड़ देते है और कुछ लोग पड़ाई को चुनौती मानकर हमेशा मेहनत करते रहते है। लेकिन अगर आपको आगे बढ़ना है और कुछ कर दिखाने का जज्बा अगर आप अपने अन्दर रखते है, तो आप भी अपनी मेहनत और लगन से बन सकते है- अगले टॉपर। ये सोचने की बजाय कि अमुख व्यक्ति इतना आगे निकल गया और अमुख कम्पनी में ऊंच पद पर काम कर रहा है, जरूरी है, ख़ुद को साबित करने की इसके लिए आपको मेहनत करनी होगी और अपने भाग्य को चुनोती देनी होगी ।

रेगुलरपढ़ाई है मंत्र :- सफलता के लिए नियमबद्ध पढ़ाई जरूरी है। लो..
Posted By : Raju Seervi Posted By on 01 Mar 2020, 14:22:06
निंदा तू न गई मेरे मन से 

सहारे के बिना जबसे खड़े होने लगे हो तुम  तभी से दॄष्टि में कुछ की, कड़े होने लगे हो तुम अगर आलोचना बढ़कर बड़े करने लगे जब भी समझ लेना कि अब कद में बड़े होने लगे हो तुम। 

बंधुओं उपरोक्त मुक्तक से इस आलेख की शुरुआत करता हूँ। 

व्यक्ति की कीर्ति बढ़ने से विरोधियों तथा आलोचकों की संख्या भी बढ़ती है।  जो लोग यशस्वी व्यक्ति के साथ रहते हैं, पीठ पीछे वह भी उसकी निंदा करते हैं।  प्रसिद्ध प्राप्त करने वाले व्यक्ति के निंदक उसके ऊपर भांति-भांति के आरोप लगाते हैं। कहावत है-बदनाम जो होंगे तो क्या नाम न होगा। 

बदनाम करने वाले यह नहीं सोचते कि वह जिसकी निंदा कर रहे हैं, उसका और भी नाम हो रहा है।  जो लोग कुछ नहीं करते वही लोग, कुछ करने वालो की निंदा करते हैं।  आज हमारे समाज में ऐसे बहुत से व्यक्ति हैं, जिनके पास सामाजित धरातल पर करने के लिए कुछ भी नहीं है; लेकिन हाथ में मोबाइल है, सोशल मीडिया का सहारा है और टारगेट पर बैठा हुआ एक व्यक्ति है..। बस, यही है उनकी समाज सेवा। 

लोग परेशान रहते हैं कीं समाचार पत्रों में उसका नाम क्यों छपता  है? शासन-प्रशास..
Posted By : Raju Seervi Posted By on 28 Feb 2020, 00:55:22
उड़ते पल-बदलता समाज

आकाश में उड़ते रुई के बादल की तरह बड़ी तेजी से समय भाग रहा है। ना हम बादलों को पकड़ पाते हैं, और ना ही समय को। समय के साथ प्रकृति में बदलाव आता गया है। प्रकृति के बदलाव के साथ मानव भी बदलता गया है। मानव के बदलाव के साथ चीजें बदली। प्राकृतिक जल, रुपयों के मोल बिक रहा है। हर चीज जो हमें प्रकृति से उपलब्ध थी, अब मूल्य चुकाकर मिल रही है। इन सबके परिवर्तन से समाज में भी परिवर्तन आ रहा है। समाज में आपसी होड़ लग रही है। हर कोई कुर्सी से चिपका जा रहा है। पद की लालसा, लोलुपता ने मनुष्य को अंधा बना दिया है। समाज चंद सिक्कों पर नाच रहा है। उड़ते पलों के साथ मनुष्य में बदलाव आ गया है, सोच में परिवर्तन आया है। कुटुम्ब की जगह एकल रहना पसंद करते है। चार बच्चों की जगह - \"हम दो, हमारे दो\" की सोच हो गई हैं। भावनाओं की जगह प्रैक्टिकल लेता जा रहा है। मनुष्य सभ्यता की आड़ में शराबी एवं हिंसक बन रहा है। इन सभी का प्रभाव समाज पर पड़ रहा है। हाँ, कुछ अच्छी बातें भी समाज में हो रही है। महिलाओं की उन्नति को समाज ने स्वीकार लिया है परन्तु मन के अंह ने उन्हें अपने से निचे ही स्थान द..
Posted By : Posted By seervi on 20 Feb 2020, 04:28:20
हिंदी का थोडा़ आनंद लीजिये ....मुस्कुरायें

हिंदी के मुहावरे बड़े ही बावरे है, खाने पीने की चीजों से भरे है.. कहीं पर फल है तो कहीं आटा दालें है, कहीं पर मिठाई है, कहीं पर मसाले है, चलो, फलों से ही शुरू कर लेते है, एक एक कर सबके मजे लेते है...

आम के आम और गुठलियों के भी दाम मिलते हैं,
कभी अंगूर खट्टे हैं, कभी खरबूजे, खरबूजे को देख कर रंग बदलते हैं,
कहीं दाल में काला है,
तो कहीं किसी की दाल ही नहीं गलती है,

कोई डेड़ चावल की खिचड़ी पकाता है,
तो कोई लोहे के चने चबाता है,
कोई घर बैठा रोटियां तोड़ता है,कोई दाल भात में मूसरचंद बन जाता है,
मुफलिसी में जब आटा गीला होता है,
तो आटे दाल का भाव मालूम पड़ जाता है,

सफलता के लिए कई पापड़ बेलने पड़ते है,
आटे में नमक तो चल जाता है,
पर गेंहू के साथ घुन भी पिस जाता है,
अपना हाल तो बेहाल है, ये मुंह और मसूर की दाल है,

गुड़ खाते हैं और गुलगुले से परहेज करते हैं,
और कभी गुड़ का गोबर कर बैठते हैं,
कभी तिल का ताड़, कभी राई का पहाड़ बनता है,
कभी ऊँट के मुंह में जीरा है,
कभी कोई जले पर नमक छिड़कता है,
किसी के दांत दूध के हैं,
तो कई दूध के धुल..
Posted By : Manohar Seervi on 02 Jan 2020, 12:18:50
व्यक्ति अगर रिश्तेदार बनकर जियेगा तो रिश्ता तीर्थ स्थल बन जायेगा । परिवार रिश्तेदारों से बनता है।दावेदारों से नहीं ।यदि रिश्तों को तीर्थ नहीं बनाया तो कितनी भी तीर्थ यात्राएं कर लो कुछ फल प्राप्त होने वाला नही है। परिवार वह सुरक्षा कवच है जिसमें रह कर व्यक्ति शांति का अनुभव करता है। अगर आपके रिश्ते में पूरी तरह से विश्वास , ईमानदारी , और समझदारी है तो जीवन में आपको वचन, कसम, नियम और शर्तों की कभी जरूरत नहीं पड़ेगी ।रिश्ते में आपसी समझ होना आवश्यक है।अत: अपने रिश्तों में दावेदारी नहीं करें , रिश्तों को तीर्थ बनाने का प्रयास करें । व्यक्ति के जीवन में व्यक्तिगत समस्याएं कम होती है और संम्बंधो से उत्पन्न समस्याएं अधिक है। जब रिश्तों की मर्यादाएं टूट जाती है, तो बहुत कुछ समाप्त हो जाता है। रिश्ते आपसी सामंजस्य से बनते है।जहां वादा होता है वहां रिश्ता होता है और जहां दावा होता है वहां रिश्ता नहीं होता है। जब तक रिश्तों को निभाना नहीं सीखेंगे हम अपने जीवन में धर्म नहीं कर पायेंगे ।रिश्तों के रास्ते ही धर्म आता है। सौभाग्य आता है ।
एक जमाना था जब पर..
Posted By : Posted By seervi on 09 Dec 2019, 09:08:30
मंदिर में दर्शन का महत्त्व ओर प्रयोजन

हम लोग बढेरा या मंदिर में दर्शन करने जाते हैं,। दर्शन करने के बाद बाहर आकर मंदिर की पैड़ी पर या ओटले पर थोड़ी देर बैठते हैं। इस परंपरा का कारण क्या है ?
अभी तो लोग वहां बैठकर अपने घर की, व्यापार की, राजनीति की चर्चा करते हैं। परंतु यह परंपरा एक विशेष उद्देश्य के लिए बनाई गई है।

वास्तव में वहां मंदिर की पैड़ी पर बैठ कर के और एक श्लोक बोलना चाहिए ।यह श्लोक हम भूल गए हैं। इस श्लोक को सुने और याद करें ।और आने वाली पीढ़ी को भी इसे बता कर जाएं ।
श्लोक इस प्रकार है

अनायासेन मरणम ,बिना दैन्येन जीवनम ।
देहान्ते तव सानिध्यम ,देहिमे परमेश्वरम।।

जब हम मंदिर में दर्शन करने जाएं तो खुली आंखों से आई माताजी का दर्शन करें । कुछ लोग वहां नेत्र बंद करके खड़े रहते हैं ।आंखें बंद क्यों करना ।हम तो दर्शन करने आए हैं ।आई माताजी के स्वरूप का ,श्री गादी पाट, का मुखारविंद का ,श्रंगार का संपूर्ण आनंद लें । आंखों में भर लें इस स्वरूप को । दर्शन करें और दर्शन करने के बाद जब बाहर आकर बैठें तब नेत्र बंद करके ,जो दर्शन किए हैं, उस स्वरूप क..
Posted By : Posted By seervi on 27 Nov 2019, 05:38:45
*एक हो युवाओं और समाज के उद्धेश्य*
युवा सीरवी समाज संक्रमण के दौर से गुजर रहा है l एक तरफ शिक्षित व् प्रशिक्षित युवाओं की संख्या में तेजी से इजाफा हो रहा है, वही दूसरी तरफ बेरोजगारी की दर भी बढती जा रही है, सम्पूर्ण भारत में बसे सीरवी समाज के युवाओं के साथ यह दशा और मनोदशा पाँव पसारती नजर आ रही है, सरकारी क्षेत्रो में नौकरियों की कमी, उद्योग धंधो की कमजोर होती माली हालत, टूटते परिवार, महंगे होते व्यापारिक उपक्रम, निजी नौकरियों की वेतन विसंगतिया, बदलते व्यापारिक हालात आदि बहुत से कारण है की आज सीरवी समाज का युवा बढती बेरोजगारी से निर्णय लेने की स्थिति से महरूम होता जा रहा है l जब से सूचना तकनीक क्रान्ति का उद्भव हुआ है, तब से आज समाज के हर युवा चाहे वह स्त्री हो चाहे पुरुष हो के हाथ में स्मार्ट फोन है, जिससे उसे देश दुनिया और अलग अलग प्रान्तों में बसे अपने जाती बंधुओ से परिचित कराने में मदद की है तथा विभिन्न तरीको से उस युवा के सपनों को नयी उड़ान दी है, एक ज़माना था जब युवा आदर्शवाद और रूमानी दुनिया से अपना सफ़र शुरू करते थे लेकिन आज का युवा बहुत जल्द खुद को परिपक्..
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