सीरवी समाज - ब्लॉग

मौत का मंगल उत्सव - मृत्युभोज एवं गंगा प्रसादी
Posted By : Posted By गोपाराम पंवार on 11 Apr 2020, 07:10:41

कुरितियों एंव रूढिवादी परम्पराओं के अधीन होना कायरता हैं ओर विरोध करना पुरूषार्थ हैं।

एक तेरहवीं के दिन मैं बैठा था। पूरे कुनबे के लोग पगड़ी बांध रहे थे। किसी के ससुराल वाले लाये तो किसी के ननिहाल वाले लाये। मैंने एक बुजुर्ग से पूछा कि आपके दादा जी मरे थे तो क्या सभी पौतों के लिए पगड़ी लाई व बंधाई गई? बताया कि सिर्फ मेरे ताऊ जी के पगड़ी बांधी गई थी।

दरअसल पहले सामाजिक ताना-बाना बहुत मजबूत था और किसी परिवार के बुजुर्ग की मृत्यु पर समाज के फैसलों में भागीदारी के लिए एक उत्तराधिकारी चुना जाता था।घर में जो भी बड़ा होता था उसको तेहरवीं के दिन पगड़ी बांधकर विधिवत उत्तराधिकारी मान लिया जाता था।

आज पूरे कुनबे अर्थात दादा की मौत पर दादा के भाई के पौतों को भी पगड़ी बंधाई जाती है। यानि मरा एक और उत्तराधिकारी नियुक्त कर दिए जाते है अनेक, मौत व उत्तराधिकारी नियुक्ति की प्रक्रियाओं को महोत्सव का स्वरूप दे दिया गया है।

किसी की मौत होती है तो घर में निराशा व मायूसी का माहौल पैदा हो ही जाता है तो उसको ढांढस बंधाने का कर्तव्य समाज का होता है।

जिसकी मौत होती थी उसके जोड़ीदार के लिए नए कपड़े व बच्चों के नए कपड़े ससुराल या ननिहाल वाले लाते थे।आज ओढावाणी-पहरावणी के नाम पर पूरा कुनबा कपड़ों का लेनदेन करता है और ऊपर से पैसों का लेनदेन भी।

दरअसल मौत को एक महोत्सव बनाने के ये दुष्परिणाम है। पहले 12 दिन तक जो भी रिश्तेदार मिलने आते थे वो साधनों के अभाव में सुबह जल्दी निकलते व शाम को देर से पहुंच पाते थे।इसलिए उनके खाने-पीने का इंतजाम दूसरे भाई-बंधु करते थे। आज साधनों की उपलब्धता हुई तो वो बंद करने के बजाय मृतक परिवार के ऊपर ही लाद दिया गया और समझा दिया गया है कि तेरा मरा है तो उसके पीछे भोज करना तेरा धर्म है।

अंतिम-संस्कार के लिए जहां 15-20 लोगों की जरूरत होती थी वो आज महोत्सव बन चुका है। पूरा कुनबा पगड़ी की रश्म में शामिल होता है, कपड़ों का लेनदेन होता है और मिठाइयों का लुत्फ उठाया जाता है। सक्षम लोगों का पैसा गलत जगह बर्बाद किया जाता है और गरीब लोगों का घर उजाड़ने की कुप्रथा स्थापित कर दी गई।

लाज़िम है जब मौत को उत्सव का रूप दे दिया जाता है तो बीड़ी - चाय - पान मसाला - डोडा - अफीम भी शामिल हो जाता है।

अगर यह चलता रहा तो भविष्य में डांगड़ी रात को सत्संग की जगह शराब पार्टी का भी आयोजन होने लगेगें। जब इंसान गिरना शुरू करता है तो गिरने का स्तर नहीं देखता।

जब मुर्दों पर बैठकर मनोरंजन होने लगा है तो गिरावट का कोई तय पैमाना नहीं होता है।

यूरोप में 14 वीं शताब्दी में प्लेग की बीमारी फैली। चर्च ने इसको दैवीय प्रकोप बताया।मगर जब चर्च के पादरी भी मरने लगे तो आमजन का चर्च से भरोसा उठ गया। प्रोटेस्टैंट सुधार आंदोलन चला और हर बात को युवा पीढ़ी तर्क की कसौटी पर परखकर आगे बढ़ने लगी। देखते ही देखते चर्च की सत्ता को उखाड़ फेंका गया और यूरोप खुशहाली के रास्ते पर चलने लगा।

मान्यताओं व परंपराओं में जकड़ा समाज कुप्रथाओं से छुटकारा पाने में खुद को असहाय समझता है। कुप्रथाओं को तोड़ने के उदाहरण स्थापित करने में खुद को भयभीत पाता है। सामाजिक तानों का ख़ौफ़ सताता है। जिस पीढ़ी ने अपने काल मे इसको विस्तार दिया है वो पीढ़ी अगली पीढ़ी तक बंदिशों का बोझ डाल जाती है।

हमने तो हमारे माँ-बाप की मौत पर बढ़िया किया है और तुम धूल मत उड़ा देना!

बाप का यह ताना बेटे को न चाहते हुए भी बर्बादी के इस आगोश में धकेल ही देता है।

अगर हिम्मत जुटा भी ले तो बाप के जीवित साथी मृतक के गुणगान का ऐसा मजमा सजा देते है कि बेटे को मजबूर होकर करना ही पड़ता है।

मगर मानवता पर जब भी संकट आता है तो कई परंपराएं छिन्न-भिन्न होती है।कई मान्यताओं को विराम देना होता है। कई नई मान्यताएं स्थापित करनी पड़ती है।

अबतक कोरोना अवधि में तकरीबन दो सौ से अधिक बुजुर्ग मर चुके है। उनका दाह संस्कार कैसे हुआ? अस्थियां कहाँ गई? मृत्युभोज का क्या हुआ? आप सब बेहतर जानते हो।

सारी परम्पराएं-मान्यताएं एक झटके में खत्म हो गई।

आज मारवाड़ में, जहां से मेरा ताल्लुक है और मारवाड़ मृत्युभोज व गंगा प्रसादी जैसी कुप्रथा का नेतृत्व करता है, अन्य कारणों से कई बुजुर्ग गुजर चुके है। तीसरे दिन गले मे अस्थियां डालकर हरिद्वार की तरफ भागते थे, वो दौड़ खत्म हो गई है। मृत्युभोज पर हजारों लोग एकत्रित होते थे मगर अब रोक दिए गए है और यह दावा किया जा रहा है कि लॉकडाउन खुलने के बाद किया जाएगा। मतलब तिये की बैठक, अस्थि-विसर्जन के मुहर्त, बारहवीं-तेहरवीं को बंद किया जा सकता है, स्थगित किया जा सकता है।

यह कोई ऐसी अटूट परंपरा नहीं है कि इसको खत्म नहीं किया जा सके!

इस महामारी के बाद बड़ा आर्थिक संकट देश के सामने होगा। लोगों के पास पैसे की कमी होगी। अगर न्यूनतम हासिल पूंजी भी इस पर उड़ाई गई तो परिवार के परिवार बर्बाद हो जाएंगे। पीढ़ियों की कब्र खुद जाएगी।

युवा पीढ़ी से विनम्र निवेदन है कि इस महामारी को एक समाज सुधार के अवसर के रूप में उपयोग करें। अपने आसपास कुपोषित माता-बहनों, लाचार पुरुषों और अनपढ़ बच्चों की बस्तियों से छुटकारा पाना चाहते हो तो

इस मृत्युभोज व गंगा प्रसादी रूपी मानवता के कलंक को अपने माथे से मिटाने का साहस तो कर ही डालों।

आज हम उदाहरण के रूप में रूसी क्रांति, यूरोप का पुनर्जागरण काल पढ़ते है।भावी पीढियां भी कोरोना काल में समाज सुधार के आपको प्रयासों को पढ़कर सबक लिया करेगी।

आइये हम सब मिलकर इस कोरोना महामारी के दोरान 21 वी सदी में रिती रिवाजों में आमूल चूल परिवर्तन कर भावी पीढ़ी के लिए नया आयाम स्थापित करने का दृढ़ संकल्प लें।

अपील

गोपाराम पंवार
राष्ट्रीय समन्वयक
नशा मुक्ति एवं समाज सुधार अभियान
9414412815,
9929717343१