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घूंघट प्रथा - एक कुप्रथा :- प्रस्तुति - पुष्पा लेरचा D/o श्री राम सिंह जी लेरचा, गरनिया,जैतारण, पाली
Posted By : Posted By seervi on 25 Apr 2020, 09:59:08

घूंघट प्रथा - एक कुप्रथा
समाज की समस्या : हमारे घर की औरतें घूंघट नहीं निकलती, वो सलवार कमीज़ और जीन्स पहनती है। वो आज के जमाने के हिसाब से चलती है। वो हमारी संस्कृति का अनुसरण नहीं करती हैं ।

एक औरत की आवाज़: घूंघट प्रथा एक कुप्रथा है जिसका मुझे अनुसरण नहीं करना है। इससे पहले कि मै अपने विचार प्रस्तुत करू उदाहरण के तौर पर एक कहानी प्रस्तुत करना चाहती हूं ।
"एक अंधे दंपति को खाना बनाने में बड़ी परेशानी होती थी,जब अंधी खाना बनाती थी एक कुता आकर ले जाता था। तब अंधे को एक समजदार व्यक्ति ने आइडिया दिया कि तुम डंडा लेकर थोड़ी थोड़ी देर में फटकते रेहना जब तक अंधी रोटी बनाएं।
जब कुत्ता तुमारे हाथ मै डंडा देखेगा और डंडे की खटखट सुनेगा तो डर के भाग जाएगा रोटियां सुरक्षित रहेगी। यह युक्ति काम कर गयी अंधे दंपति खुश हो गए।
कुछ वर्षो बाद उनके घर मै एक पूत्र हुआ जिसकी आंखे भी थी और वो एकदम स्वस्थ था। उसे पढ़ा लिखाकर बड़ा किया । उसकी शादी हुई और बहू आयी। बहू जैसे ही रोटी बनाने लगी तो लड़का डंडा लेकर दरवाजे पर खटखट करने लगा। बहू ने पूछा यह क्या कर रहे हो और क्यो ? तो लड़के ने बताया यह हमारी घर की परंपरा है मेरी माता जब भी रोटी बनाती तो मेरे पापा ऐसे ही करते थे।
कुछ दिन बाद उनके घर मै एक गुणीजन आये, तो माजरा देख समझ गए। वो बोले बेटा तुम्हारे माता-पिता तो अंधे थे, अक्षम थे इसलिए उन्होंने डंडे की खटखट के सहारे रोटियां बचाई थी। लेकिन तुम और तुम्हारी पत्नी की आंखे है तुम्हे इस खटखट की जरूरत नहीं है। "बेटे परम्पराओं को पालने में विवेक को महत्व दो"
इसी तरह हमारे यहां स्त्रियों में पर्दा पर्था मुगल आतंकियों के कारण आयी थीं। क्योंकि वो सुंदर स्त्रीयो को उठा कर ले जाते थे इसीलिए स्त्रियों को मुंह ढककर रखने की आवश्यकता पड़ती थी। सर पर हमेशा पल्लू होता था ताकि जैसे घोड़े की आवाज़ आए तो मुंह पर पल्ला तुरंत खींच सके।
लेकिन अब हमारे उपर मुगलों का राज नहीं है फिर भी हम उनकी कुप्रथाओं का अंधो की तरह अनुसरण करते है ।
आज हमारा समाज पढ़ लीख कर आगे बढ़ रहा है । हर क्षेत्र में बदलाव और विकास की बात करता है , लेकिन दूसरी तरफ अपने घर, समाज और देश की महिलाओं को पर्दे मै रखना चाहता है।
सिर्फ हमारे बुजुर्ग ही नहीं आज के पढ़े लिखे लोग भी अपने घर की महिलाओं को घूंघट मै रखना अपने घर की परंपरा मानते है।
हमारा समाज कितना दोगला है समाज की महिलाओं को तो आज भी उसी पर्दे मै रखने को संस्कार और संस्कृति मानता है लेकिन पुरुष चाहे धोती कुर्ता और पगड़ी नहीं पहनेगे तो भी संस्कृति बची रहेगी।
क्या सिर्फ औरतों का काम है रीति रिवाजों का पालन करना क्या इसमें पुरुष की कोई भागीदारी नहीं है।
यह समाज अगर खुद समय के साथ अपने अंदर बदलाव कर सकता है तो फिर हम औरतों को क्यो पीछे धकेलता है। क्यो उन पुरानी कुरीतियों को अपनाने के लिए मजबूत करता है। क्यो हमारे संस्कारो और संस्कृति को उस पर्दे रूपी तराजू में तोलता है।
जब भी कोई इसके खिलाफ आवाज उठाता है तो हजारों अंधे लोगो की आवाजे उस आवाज़ को दबा देती है।
जब हम हमारे माता - पिता का सामान बिना पर्दे के इन्नी कपड़ों में कर सकती है तो फिर ससुराल वालो का सम्मान करने लिए उस पर्दे कि क्यों जररूत है।
बड़ो के लिए आदर और सम्मान हमारे नजर मै होता है, हमारे संस्कारो की पहचान हमारे कर्मो से होती है, फिर इस पर्दा प्रथा का हम आज भी अंधों की तरह क्यों अनुसरण कर रहे है। क्यो अपने घर की बहू - बेटियों को मजबूत करते है ऐसी कुप्रथाओं का पालन करने के लिए।
और बोहत से लोग ऐसे भी है जो कहते है अगर औरत अगर बाहर काम करती है तो घूंघट नहीं निकालेगी तो चलेगा लेकिन अगर कोई औरत गृहणी है जो घर के काम - काज करती है उनको घूंघट निकालना चाहिए। क्यों ?
कहीं बार हम सुनते है घूंघट की वजह से बोहत सी औरतों के साथ हादसे हो जाते है कभी उनके उपर गर्म तेल गिर जाता है कभी वो सीढ़ियों से गिर जाती है, इसके अलावा भी कहीं सारी परेशानियों का सामना करना पड़ता है जैसे-

खुली हवा नहीं मिलने से स्वास्थ्य का नाश।

घर से बाहर नहीं निकलने से अनुभव कि कमी।

भ्रमण आदि आनंद में कमी।

हिम्मत की कमी से द्रूस्टो और दुर्जनो का सामना नहीं कर पाना।

नारीत्व का अपमान।

इन सब समस्याओं के सामना करने के बावजूद वो त्याग की देवी तुम्हारा हर समय साथ देती।

फिर क्यों उनको उनके अनुसार कपड़े पहनने की इजाजत नहीं देता यह समाज।
एक तरफ तो बेटी बचाओ बेटी पढ़ाओ का नारा लगाता है और दूसरी तरफ अपनी बहू बेटियों से घूंघट प्रथा का पालन करवाता है।
मै ऐसे दोगले समाज की कड़ी निंदा करती हूं ।

यह आवाज़ उस हर औरत की है जो इसके खिलाफ बोलना तो चाहती है लेकिन हमारे इस दोगले समाज के आगे हमेशा दब जाती है।
लेकिन अब जागरूकता का समय है , बदलाव का समय है उस हर औरत को अपने हक कि लड़ाई लड़ने का पूरा अधिकार है। उसे अपने अनुसार जीन, रहने और कपड़े पहनने का हक है।
सबसे महत्वपूर्ण बात यह लड़ाई सिर्फ औरतों की नहीं है उस हर आदमी की भी है जो समाज को और देश को आगे बढाना चाहता है, जिसको अपने घर की बहू बेटियों के हक के लिए, उनको इन कुरीतियों से मुक्त करवाने के लिए अपनी आवाज उठानी हैं।
अगर मेरे इतना सब लिखने के बावजूद भी अगर कोई इस घूंघट प्रथा का समर्थन करता है तो अपने घर में जिस देवी की वो पूजा करता है उसको भी घूंघट और पर्दे मै रखना शुरू कर दे।

मेरा इतना सब लिखने का अभिप्राय यही है कि जिस तरह हम समय के साथ आगे बढ रहे है। जब औरतें पुरुष की बराबरी कर रही है, हर क्षेत्र में वो आगे बढ़कर पूर्ण योगदान दे रही है। उस समय हमारे समाज को ऐसी कुरीतियों को त्याग कर महिलाओं का साथ देना चाहिए, उने आगे बढ़ने के लिए प्रोत्साहन करना चाहिए। तभी हमारा समाज एक पढ़ा लिखा सक्सम और विकसित समाज बनेगा।

सीरवी नारीशक्ति बहन पुष्पा लेरचा D/o श्री राम सिंह जी लेरचा,
गरनिया,जैतारण, पाली
(सीरवी ज्ञानकोष नारीशक्ति सदस्या)

Department Of Biotechnology
Shri Mata Vaishno Devi University(SMVDU), Katra, J&K
25/04/2020