सीरवी समाज - - ब्लॉग

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Posted By : Posted By दलपत सिंह राठौड़ (बिलाड़ा ) on 21 May 2021, 06:
"विनाशक व्याधि"

मास फागुन में आँधी सी।
आयी विनाशक व्याधि सी।।

जाने किस ऋतुचक्र में फँसकर।
बेकसूर, निरपराधों को चटकर।
दुष्ट मायावी, कुलटा रूप लेकर।
अनगिनत बंधुओं पर पैर पसारकर।।
बन बैठी गृह स्वामिनी सी।
मुंह फुलाएं कुलघातिनी सी।।
आयी विनाशक...............

जाति,धर्म, मत,पंथ से ऊपर उठकर।
क्षेत्र, समुदाय विशेष से नाता तोड़कर।
नाम कोरोना विश्व प्रसिद्ध रखकर।
अकड़ अपनी हर घर-घर फैलाकर।।
बिन बुलाए मेहमान सरीखी सी।
बन गई भारत की साम्राज्ञी सी।।
आयी विनाशक..................

अपनों को अपनों से लूटकर।
असहाय, अनाथ उन्हें बनाकर।
रणभूमि अपनी यहाँ सुदृढ़कर।
कमजोर निर्धनों को निगलकर।।
ताक रही क्रूर गिद्ध दृष्टि सी।
आ बैठी निकृष्ट घमंडी सी।।
आयी विनाशक.............

पर आज यह संकल्प धारणकर।
मर्यादा,अनुशासित नियम अपनाकर।
तुझे भगा देंगे मन में निश्चयकर।
बनने नहीं देंगे पक्का यहाँ घर।।
देखती रह जाएगी तू ठगी सी।
शीघ्र बनाएंगे भू को निरोगी सी।।
आयी विनाशक.............

आओ हम सब संगठित होकर।
सरकारी निर्देशों की पालना कर।
महामारी को क्षिति..
Posted By : Posted By Manohar Mysore on 01 Jun 2020, 04:15:00
सिरवी समाज डांट काम की टीम को बहुत बहुत बधाई जिन्होंने भारत में लॉकडाउन की घडी में समाज में एक अच्छी पहल करके हर शनिवार को दिवान साहब से सीधा संवाद करके अन छुए पहलुओं को दिवान साहब के श्री मुख से सुनने को मिल रहा है इसी कड़ी में गत शनिवार को एक अच्छी बात यह भी हुईं की आरती में खिलजी के स्थान पर आसूर शब्द बोला जायेगा।ये प्रस्ताव MP से CA भगवान जी लछेटा ,अध्यक्ष सीरवी समाज ट्रस्ट इंदौर वालों के द्बारा लाया गया था इसके ऊपर दिवान साहब ने अपनी इच्छा प्रकट करते हुए मोखीक स्वीकृति दे दी गई बहुत अच्छा हुआ हमारे मन में भी बहुत दिनों से बदलाव की इच्छा थी

उसी तरह दो और बदलाव की जरूरत है हो सकता है में गलत भी हो सकता हु।

1-जब हमारे यहां माताजी अम्बापुर से लेकर बिलाड़ा तक पथारे साथ में नन्दी(पोठीया) था नन्दी यानी धर्म माताजी ने हमेशा धर्म को साथ लेकर चलते थे धर्म का उपदेश देते थे आज बिलाड़ा में भी मन्दीर में जाने से पहले नन्दी की स्थापना है। नन्दी का दर्शन कर मन्दीर में जाते हैं नन्दी यानी धर्म। धर्म यानी शिव । शिवजी के दर्शन कर मन्दीर में जाते हैं बिलाड़ा की भांति ह..
Posted By : Posted By seervi on 25 Apr 2020, 09:59:08
घूंघट प्रथा - एक कुप्रथा
समाज की समस्या : हमारे घर की औरतें घूंघट नहीं निकलती, वो सलवार कमीज़ और जीन्स पहनती है। वो आज के जमाने के हिसाब से चलती है। वो हमारी संस्कृति का अनुसरण नहीं करती हैं ।

एक औरत की आवाज़: घूंघट प्रथा एक कुप्रथा है जिसका मुझे अनुसरण नहीं करना है। इससे पहले कि मै अपने विचार प्रस्तुत करू उदाहरण के तौर पर एक कहानी प्रस्तुत करना चाहती हूं ।
"एक अंधे दंपति को खाना बनाने में बड़ी परेशानी होती थी,जब अंधी खाना बनाती थी एक कुता आकर ले जाता था। तब अंधे को एक समजदार व्यक्ति ने आइडिया दिया कि तुम डंडा लेकर थोड़ी थोड़ी देर में फटकते रेहना जब तक अंधी रोटी बनाएं।
जब कुत्ता तुमारे हाथ मै डंडा देखेगा और डंडे की खटखट सुनेगा तो डर के भाग जाएगा रोटियां सुरक्षित रहेगी। यह युक्ति काम कर गयी अंधे दंपति खुश हो गए।
कुछ वर्षो बाद उनके घर मै एक पूत्र हुआ जिसकी आंखे भी थी और वो एकदम स्वस्थ था। उसे पढ़ा लिखाकर बड़ा किया । उसकी शादी हुई और बहू आयी। बहू जैसे ही रोटी बनाने लगी तो लड़का डंडा लेकर दरवाजे पर खटखट करने लगा। बहू ने पूछा यह क्या कर रहे हो और क्यो ? तो ..
Posted By : Posted By seervi on 09 Apr 2020, 11:32:35
व्यावहारिक जगत में श्री आई माताजी को साथ रखिये

श्री आई माताजी में विश्वास की कमी के कारण, दूषित वातावरण का असर पडने के कारण एवं पूर्व के संस्कारों के कारण बहुत बार हम लोगों के मन में परिवार को लेकर चिन्ताएँ आ सकती हैं। उस समय जगत का महत्व दैवी शक्ति की अपेक्षा अधिक हो जाता है। वस्तुतः जागतिक चिन्ता तभी आती, जब दैवी शक्ति गौण हो जाती हैं और जगत् प्रधान। इसलिये खूब सावधान रहना चाहिये कि एक क्षण के लिये भी श्री आई माताजी गौण नहीं होने पायें। आप विश्वास रक्खें कि जैसे-जैसे माताजी को मुख्य उद्देश्य मानते जायेंगे वैसे-वैसे यह चिन्ता हटती जायगी। एक बात और है---साधना मार्ग में खासकर श्री आई माताजी-शरणागति में किसी भी जागतिक चिन्ता को मन में स्थान ही नहीं देना चाहिये। यदि हम माताजी के हो गये, नहीं, सदैव ही माताजी के थे, हैं और रहेंगे तो हमसे सम्बद्ध यावन्मात्र पदार्थ भी माताजी के ही हैं। क्या माताजी को अपनी चीजों का ध्यान नहीं है ? क्या हम उनसे ज्यादा चतुर एवं बुद्धिमान हैं, जो उनकी अपेक्षा भी अधिक अच्छी तरह किसी चीज की संभाल करेंगे ? वस्तुतः सच्ची बात तो यह ..
Posted By : Posted By seervi on 02 Apr 2020, 06:14:37
जय श्री आईजी री सा
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?? हमारे सामाजिक परिवेश में बहुत सारी ऐसी बीमारियां होती है जो खाने-पीने और छूने से फैलती है। वर्तमान समय में कोरोना विषाणु जनित रोग जो चल रहा है वह भी एक छूत की बीमारी ही है ।
सीरवी समाज में काफी लंबे समय से एक कुप्रथा चली आ रही है सहभोज यानी कि साथ में बैठकर एक ही बर्तन में भोजन करना।
सह भोज को मैं कुप्रथा इसलिए कह रहा हूं क्योंकि इससे केवल मात्र नुकसान ही है चाहे वह भौतिक रूप से हो या फिर चाहे आध्यात्मिक रूप से ।
भौतिक रूप से नुकसान का मतलब हमारे अमूल्य मानव शरीर को इस प्रथा द्वारा होने वाली बीमारी से है।
कोरोना रोग के अलावा भी ऐसी बहुत सारी छुआछूत की बीमारियां कम्युनिकेबल डिसीज है जो मात्र साथ में बैठकर भोजन करने से होती है हां यह अलग बात है कि उन बीमारियों का इनक्यूबेशन पीरियड काफी लंबा होता है और वह हमारे शरीर पर कोरोनावायरस की तरह तुरंत असर ना डाल कर बहुत लंबे समय बाद असर डालती है यानी कि हमको बीमार करती है।
जैसे - कोलेरा हेपेटाइटिस ए टाइफाइड कोरोना वायरस अन्य।
इस प्रकार के सभी रोग मुख्य रूप से सहभोज से ही होते हैं, इन..
Posted By : Posted By seervi on 13 Mar 2020, 08:27:52
बाल कल्याण समिति
https://www.facebook.com/Adv-Rajendra-Singh-Seervi-101772761458137

किशोर न्याय (बच्चों की देखभाल और संरक्षण) अधिनियम, 2015 की धारा -27 के तहत प्रावधानों के अनुसार और किशोर न्याय (बच्चों की देखभाल और संरक्षण) नियम -15 के नियम -15 के साथ पढ़ें, मॉडल नियम, 2016 शक्तियों और कर्तव्यों के निर्वहन के लिए जिलों में कल्याण समितियां समय-समय पर इस अधिनियम और नियम के तहत बच्चों की देखभाल और सुरक्षा की आवश्यकता के संबंध में ऐसी समितियों को सम्मानित करती हैं।

किशोर न्याय (बच्चों की देखभाल और संरक्षण) अधिनियम 2015 की धारा -29 के अनुसार, समिति के पास देखभाल और सुरक्षा की आवश्यकता, बच्चों की देखभाल, संरक्षण, उपचार, विकास और पुनर्वास के लिए मामलों के निपटान का अधिकार होगा, साथ ही उनकी बुनियादी जरूरतों और सुरक्षा के लिए। जहां किसी भी क्षेत्र के लिए एक समिति का गठन किया गया है, ऐसी समिति किसी भी अन्य कानून में निहित किसी भी चीज के बावजूद, लेकिन इस अधिनियम में दिए गए अन्यथा स्पष्ट रूप से सहेजने के अलावा, इस अधिनियम के तहत सभी कार्यवाही से विशेष रूप से निपटने की शक्ति है बच्चों की देखभाल और सुरक्षा की जरूरत ह..
Posted By : Posted By seervi on 20 Feb 2020, 04:28:20
हिंदी का थोडा़ आनंद लीजिये ....मुस्कुरायें

हिंदी के मुहावरे बड़े ही बावरे है, खाने पीने की चीजों से भरे है.. कहीं पर फल है तो कहीं आटा दालें है, कहीं पर मिठाई है, कहीं पर मसाले है, चलो, फलों से ही शुरू कर लेते है, एक एक कर सबके मजे लेते है...

आम के आम और गुठलियों के भी दाम मिलते हैं,
कभी अंगूर खट्टे हैं, कभी खरबूजे, खरबूजे को देख कर रंग बदलते हैं,
कहीं दाल में काला है,
तो कहीं किसी की दाल ही नहीं गलती है,

कोई डेड़ चावल की खिचड़ी पकाता है,
तो कोई लोहे के चने चबाता है,
कोई घर बैठा रोटियां तोड़ता है,कोई दाल भात में मूसरचंद बन जाता है,
मुफलिसी में जब आटा गीला होता है,
तो आटे दाल का भाव मालूम पड़ जाता है,

सफलता के लिए कई पापड़ बेलने पड़ते है,
आटे में नमक तो चल जाता है,
पर गेंहू के साथ घुन भी पिस जाता है,
अपना हाल तो बेहाल है, ये मुंह और मसूर की दाल है,

गुड़ खाते हैं और गुलगुले से परहेज करते हैं,
और कभी गुड़ का गोबर कर बैठते हैं,
कभी तिल का ताड़, कभी राई का पहाड़ बनता है,
कभी ऊँट के मुंह में जीरा है,
कभी कोई जले पर नमक छिड़कता है,
किसी के दांत दूध के हैं,
तो कई दूध के धुल..
Posted By : Posted By seervi on 09 Dec 2019, 09:08:30
मंदिर में दर्शन का महत्त्व ओर प्रयोजन

हम लोग बढेरा या मंदिर में दर्शन करने जाते हैं,। दर्शन करने के बाद बाहर आकर मंदिर की पैड़ी पर या ओटले पर थोड़ी देर बैठते हैं। इस परंपरा का कारण क्या है ?
अभी तो लोग वहां बैठकर अपने घर की, व्यापार की, राजनीति की चर्चा करते हैं। परंतु यह परंपरा एक विशेष उद्देश्य के लिए बनाई गई है।

वास्तव में वहां मंदिर की पैड़ी पर बैठ कर के और एक श्लोक बोलना चाहिए ।यह श्लोक हम भूल गए हैं। इस श्लोक को सुने और याद करें ।और आने वाली पीढ़ी को भी इसे बता कर जाएं ।
श्लोक इस प्रकार है

अनायासेन मरणम ,बिना दैन्येन जीवनम ।
देहान्ते तव सानिध्यम ,देहिमे परमेश्वरम।।

जब हम मंदिर में दर्शन करने जाएं तो खुली आंखों से आई माताजी का दर्शन करें । कुछ लोग वहां नेत्र बंद करके खड़े रहते हैं ।आंखें बंद क्यों करना ।हम तो दर्शन करने आए हैं ।आई माताजी के स्वरूप का ,श्री गादी पाट, का मुखारविंद का ,श्रंगार का संपूर्ण आनंद लें । आंखों में भर लें इस स्वरूप को । दर्शन करें और दर्शन करने के बाद जब बाहर आकर बैठें तब नेत्र बंद करके ,जो दर्शन किए हैं, उस स्वरूप क..
Posted By : Posted By seervi on 17 Nov 2019, 05:12:32
*सरकार द्वारा निष्प्रयोज्य घोषित हो जाने अर्थात रिटायर हो जाने के बाद तमाम सरकारी अधिकारियों एवं कर्मचारियों के समक्ष समय काटना एक विकट समस्या बन जाती है।***

*इस स्थति का सामना करने के लिये लोगों ने तरह-तरह के उपाय और तरीक़ों को ईजाद किया है।

*कुछ कर्मठ ब्रान्ड के लोग तुरंत रामू काका के रोल में आ जाते हैं और सबेरे से उठ कर कंधे में तौलिया लटका कर घर की साफ़ सफ़ाई और किचेन के ज़रूरी कामों को निबटाने में जुट जाते हैं।

*बचे हुये दिन के समय में यह पत्नियों के लिये ड्राइवर की सेवायें मुहैया कराते हैं और बाज़ार में ख़रीदारी और सिनेमा आदि दिखाने का कार्य बख़ूबी निबटाते हैं।

*ऐसे लोगों की पत्नियों ने पूर्व जन्म में अवश्य कुछ अच्छे कार्य किये होंगे जिसके परिणाम स्वरूप उन्हें यह सुखद स्थति प्राप्त हुई है।

*तमाम लोग ऐसे भी हैं जो रिटायर होने के बाद एकाएक अत्यधिक धार्मिक हो जाते हैं ओर सुबह शाम दो दो घंटे विभिन्न मंदिरों में पूजा पाठ और भजन कीर्तन में अपना टाइम बिता लेते हैं भले ही इसके पहले उन्होंने मंदिरों में कभी झांका भी न हो और भूल से भी कभी को..
Posted By : Posted By seervi on 29 Sep 2019, 04:33:53
मेरे समाज में आज भी घूँघट निकालने के लिए बाध्य किया जाता है ना सिर्फ गाँव में बल्कि बड़े शहरों में भी आज की पढ़ी लिखी नए विचारो की लडकिय हाथ भर का घूँघट निकाल रही है, आखिर में गुलामी का भार कब तक उठाएगी ? हमारे समाज की पढ़ी लिखी लडकिया जो नए जमाने के साथ कदम मिला कर आगे बढ़ना चाहती है उन्हें ये रुढ़िवादी विचारधारा वापस उसी कीचड में घसीट रही है जब लडकिया ये सब बंदिशे भाव झेल नहीं पाती और घटती है तथा उनके माँ बाप उन्हें कुछ ऐसी महिलाओं का उदाहरण देकर हिम्मत बंधाते है चुप चाप जी रही है अफ़सोस की बात है की आज के लड़के जो खुद को हॉलीवुड की दुनिया के करीबी मानते है वो भी इसका विरोध नहीं करते, जो अच्छे से जानते है की घूँघट एक कुप्रथा (अनाचार) है और एक गुलामी की निशानी है, बदलाव के लिए बड़ी बड़ी बाते नहीं बड़ा जिगर होना चाहिए l लडकियों को खुद अपनी स्थिति बदलनी होगी बिना किसी रुकावट में उसके लिए किसी ना किसी को तो पहल करनी ही पड़ेगी l
इस पर समाज विचार करे

नैनाराम बर्फा (नेमीचंद बर्फा)
महेश्वरम, हेदराबाद, तेलंगाना
9739631455..
Posted By : Posted By seervi on 12 Sep 2019, 03:19:23
एक गांव मे अंधे पति-पत्नी रहते थे । इनके यहाँ एक सुन्दर बेटा पैदा हुआ। पर वो अंधा नही था।

एक बार पत्नी रोटी बना रही थी। उस समय बिल्ली रसोई में घुस कर बनाई रोटियां खा गई।
बिल्ली की रसोईं मे आने की रोज की आदत बन गई इस कारण दोनों को कई दिनों तक भूखा सोना पड़ा।
एक दिन किसी प्रकार से मालूम पड़ा कि रोटियाँ बिल्ली खा जाती है।
अब पत्नी जब रोटी बनाती उस समय पति दरवाजे के पास बाँस का फटका लेकर जमीन पर पटकता।
इससे बिल्ली का आना बंद हो गया।
जब लङका बङा हुआ और उसकी शादी हुई।
बहू जब पहली बार रोटी बना रही थी तो उसका पति बाँस का फटका लेकर बैठ गया औऱ फट फट करने लगा।

कई दिन बीत जाने के बाद पत्नी ने उससे पूछा कि तुम रोज रसोई के दरवाजे पर बैठ कर बाँस का फटका क्यों पीटते हो?
पति ने जवाब दिया कि
ये हमारे घर की परम्परा (रिवाज) है इसलिए मैं ऐसा कर रहा हूँ।

कहानी का सार:
माँ बाप तो अंधे थे, जो बिल्ली को देख नहीं पाते थे, उनकी मजबूरी थी इसलिये फटका लगाते थे। पर बेटा तो आँख का अंधा नही था पर अकल का अंधा था,
इसलिये वह भी वैसा करता था जैसा माँ-बाप करते थे।

ऐसी ही दशा आज के अपन..
Posted By : Posted By seervi on 29 Aug 2019, 07:44:55
देश का बटवारा हुआ, सबने अपने अपने हिसाब से माँगा, खोया, पाया l
प्रकृति ने हमारा पलायन किया, हमने भी माँगा, खोया और पाया l

क्या खोया और क्या पाया शायद इस लेख से समझ आये - मुझे तो आया l
सिंध का बंटवारा पंजाब और बंगाल से अलग है !

सिंध को हमसे बिछड़े 70 बरस हुए !
सिंधियों की जो पीढ़ी बंटवारे के दौरान इस पार आई थी
उनमें से ज्यादातर अब इस दुनिया में नहीं हैं .
बचे-खुचे कुछ बूढ़ों की धुंधली यादों के सिवा अब सिंध सिर्फ हमारे राष्ट्रगान में रह गया है .
इन 70 सालों में हमें यह एहसास ही नहीं हुआ
कि हमने सिंध को खो दिया है .
इस बीच सिंधियों की दो पीढ़ियां आ गई है
पर सिंध और सिंधियों के पलायन के बारे में हम अब भी ज्यादा कुछ नहीं जानते .

बंटवारे का सबसे ज्यादा असर जिन तीन कौमों पर पड़ा
उनमें पंजाबी ,बंगाली और सिंधी थे .
मगर बंटवारे का सारा साहित्य फिल्में और तस्वीरें पंजाब और बंगाल की कहानियां से भरी है .
मंटो के अफसानों से भीष्म साहनी की 'तमस' तक बंटवारे के साहित्य मे पंजाब और बंगाल की कहानियां हैं .
सिंध उनमें कहीं नहीं है.
पंजाबी और बंगालियों के मुकाब..
Posted By : Posted By seervi on 25 Aug 2019, 13:16:32
शिक्षा का महत्व सदियों पुराना है । शिक्षा ग्रहण करना यानि अपने आप को निखारना । अपनी कुशाग्रता बढाना , चंचलता बढाना होता है । शिक्षा ग्रहण करने से हम सामाजिक साहित्यों का अध्ययन कर सकते है, लेखाजोखा रख सकते है, लेनदेन का सही हिसाब रख सकते है और भी अनगिनत फायदे है , कहते भी है और सत्य भी है कि पढेलिखे को चार आंखें होती है ।
भारतीय संविधानानुसार हर एक को शिक्षा देना हमारा कर्तव्य है और शिक्षा ग्रहण करना हर बालक का अधिकार है और यह फर्ज हमे पुरा करने का अवश्य प्रयत्न करना ही चाहिए । उसके साथ साथ हमे अपने बच्चों को धार्मिक , मानवीय शिक्षाओं से भी रूबरु करवाना चाहिए । जहां विद्यालयीन शिक्षा उसे पढना लिखना सिखाती है , वहीं धार्मिक, और मानवीय शिक्षा उसे संस्कारों के प्रति जागरूक करती है, आडंबरों व अंधविश्वासों से दूर करती है , अपने आप को वैचारिक मजबूती मिलती हैं। और भी अनगिनत लाभ है शिक्षा पाने के ।
हमे यह सबसे पहले सोचना है कि बच्चों को मातृभाषा मे दी जानेवाली शिक्षा सबसे ज्यादा असरदायक रहती है , अपनत्व रहता है , अन्य भाषाओं की सिखावट की तरह उसको अपनी मातृ..
Posted By : Posted By seervi on 19 Aug 2019, 07:05:41
सोशल मीडिया के महत्व को समझे सीरवी समाज अनमोल अवसर यूं न गवाएं

वर्तमान समय में सोशल मीडिया सूचनाओं को आसानी से आदान-प्रदान में महत्वपूर्ण भूमिका निभा रही है। इसकी व्यापकता और कम समय में अधिक से अधिक लोगों तक जरुरी सूचनाएँ पहुंचाने की क्षमता तमाम लोगों के लिए बेहद सुविधाजनक है वहीं दूसरी तरफ उन्माद फैलाने वाले कुछ लोग इसका दुरुपयोग भी कर रहे हैं।

कुछ महीनों पहले मैं इलैक्ट्रॉनिक मिडिया तन्त्र से अनजान थी किताबों में ही ज्यादा व्यस्त रहती थी लेकिन अब इलैक्ट्रॉनिक मिडिया संसार के बारे मे थोड़ा जानने लगी हूँ, समाज का अपना कोई मीडिया नहीं था। समाज विकास के सम्बन्ध मे अपने विचार र्राष्ट्रीय स्तर पर पहुंचाना तो दूर... एक ही गांव में संवाद चिंतन तक नहीं हो पाता था।

मिशन के कुछ जुनूनी लोग अपना सुख छोड़, सामाज में पत्रिका का कार्य करते रहे, लेकिन समाज ने उनको सहयोग......रहा अब सोशल मीडिया की क्रांति ने हमें अपने समाज की सामाजिक वैचारिक जागृति मे परिवर्तन के लिए अनमोल मंच मिला है, जैसे "सीरवी समाज सम्पूर्ण भारत डॉट कॉम" हमारे समाज का एक बेहतरीन प्लेटफार..
Posted By : Posted By seervi on 06 Aug 2019, 11:35:55
मैं बहुत आनंदित हुआ कि युवकों और विद्यार्थियों के बीच थोड़ी सी बात कहने को मिलेगी। युवकों के लिए जो सबसे पहली बात मुझे खयाल में आती है वह यह है, और फिर उस पर ही मैं और कुछ बातें विस्तार से आज आपसे कहूंगा।

जो बूढ़े हैं उनके पीछे दुनिया होती है, उनके लिए अतीत होता है, जो बीत गया वही होता है। बच्चे भविष्य की कल्पना और कामना करते हैं, बूढ़े अतीत की चिंता और विचार करते हैं। जवान के लिए न तो भविष्य होता है और न अतीत होता है, उसे केवल वर्तमान होता है। यदि आप युवक हैं तो आप केवल वर्तमान में जीने की सामथ्र्य से ही युवक होते हैं। यदि आपके मन में भी पीछे का चिंतन चलता है तो आपने बूढ़ा होना शुरू कर दिया। अगर अभी भी भविष्य की कल्पनाएं आपके मन में चलती हैं तो अभी आप बच्चे हैं।

युवा अवस्था बीच का एक संतुलन बिंदु है। मन की ऐसी अवस्था है, जब न कोई भविष्य होता है, और न कोई अतीत होता है। जब हम ठीक-ठीक वर्तमान में जीते हैं तो चित्त युवा होता है, यंग होता है, ताजा होता है, जीवित होता है, लिविंग होता है। सच यह है कि वर्तमान के अतिरिक्त और किसी की कोई सत्ता नहीं है। न तो अतीत की कोई सत्ता है, ..
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