सीरवी समाज - मुख्य समाचार

Posted By : Posted By Mangal Senacha on 08 Dec 2010, 11:15:48

शिवगंज। सर्दी प्रारंभ होते ही वर्षों पुरानी परम्परा के चलते शहर सहित आस-पास के गांवों में बैलों से चलाई जाने वाली घाणियां शुरू हो गई हंै। इन घाणियों में विशेषकर तिल्ली की पिसाई कर उसका तेल निकाला जाता है एवं सेली तैयार की जाती है। हालांकि पहले से अब घाणियों का चलन काफी कम हुआ है। इसकी वजह है कि बैल से चलने वाली इन घाणियों में तिल्लों की पिसाई के लिए अधिक समय व्यतीत होता है और बैल के लिए साल-भर चारा-पानी पर मुनाफे से ज्यादा धन खर्च करना पड़ता है। ऐसे में इलेक्ट्रॉनिक मोटर व डीजल इंजन से संचालित घाणियों से महीनों का काम दिनों में हो जाता है। इसके बावजूद सर्दी के मौसम में अधिकांश लोग तिल्ली के तेल व सेली की डिमांड बढ़ जाती है।
तेल की शुद्धता पर विश्वास
बैलोंं की घाणियों से मिलने वाले तिल्ली के तेल व सेली के बारे में शिवगंज निवासी भूराराम घांची ने बताया कि बैलों से चलाई जाने वाली सभी घाणियां लकड़े की बनी हुई होती है। साथ ही इसमें तिल्ली की पिसाई के समय शुद्धता का पूरा ध्यान रखा जाता है। धीरे-धीरे आधुनिक मशीनों के चलन बढऩे से इन घाणियों की संख्या घटती गई। वर्तमान में तो यह हालात हैं कि इक्की-दुक्की ही घाणियां रह गई हैं, जो केवल सर्दी के मौसम में ही शुरू होती है।
सर्दी में खूब बिकती है सेली
सर्दी के दिनों में तिल्ली की सेली की डिमांड बढ़ जाती है। मारवाड़ क्षेत्र में इसका सर्वाधिक चलन है। घाणी से निर्मित फीकी सेली १४० रुपए तथा मीठी सैली १२० रुपए के भाव से बिक रही है। यहां निर्मित होने वाली सेली शहर ही नहीं, बल्कि मुंबई और चेन्नई भी भेजी जाती है। इस सेली को सर्दी का मावा के नाम से भी जाना जाता है। शहर में परंपरागत तरीकों से सैली बनाने वाले व्यक्तियों की संख्या पहले करीब एक दर्जनभर थी, लेकिन घाणियां बंद हो जाने से इस समय इसकी संख्या घट कर एक-दो ही रह गई है। इन दिनों शहर सहित आसपास के क्षेत्रों में सेली की मांग बढ़ गई है। इसी को ध्यान में रखते हुए घाणी संचालक इस कार्य को अंजाम देने में जुटे हुए हैं।
ऐसे बनती है सेली
घाणी की पिसाई से तैयार होने वाली तिल्ली की सेली पौष्टिक तो होती ही है। इसमें शुद्धता बनाए रखने के लिए भी पूरा ध्यान रखा जाता है। पहले तिल्ली की सफाई की जाती है। इसके बाद उसे घाणी में पिसाई के लिए डाला जाता है तथा जरूरत के अनुसार उसमें गर्म पानी मिलाया जाता है, ताकि उसकी पिसाई पूरी तरह से हो सके। घाणी से तेल को अलग कर शेष रहने वाले अवशेष को ही सेली कहते हैं। हालांकि सेली से पूरा तेल नहीं लिया जाता है, ताकि खाने में स्वादिष्ट हो। सेली में गुड़ व शक्कर मिलाकर उसे मीठा भी बनाया जाता है।
इस बार गिरे भाव
शिवगंज निवासी रूपाराम बताते हैं कि बैलों से संचालित घाणियों की संख्या पहले से भले ही कम हुई हो, लेकिन इससे निकाले जाने वाले तिल्ली तेल एवं सेली की शुद्धता पर आज भी आमजन को विश्वास है। इसकी सीजन सिर्फ सर्दी मौसम तक ही चलती है। अन्य समय में घाणी को बंद ही रखा जाता है।
तिल्ली सेली व तेल का भाव इसके उत्पादन एवं तिलों की दर पर निर्भर रहता है। जब तिल के भाव कम होते हैं तो इसकी दर भी कम हो जाती है। इसी कारण पिछले साल से इस बार सेली की दर में काफी गिरावट आई है, क्योंकि इस वर्ष तिल्ली का उत्पादन बढ़ा है।
दैनिक भास्कर