Posted By : Dr.bhanwar seervi.drbsirvi@gmail.com,+ 91 9582036686 
	
	
हाल ही में एक खबर आई थी की भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद् के वैज्ञानिकों द्वारा की गयी रिसर्च के मुताबिक़ गेहूं और चावल के पोषक तत्त्वों में कमी आ रही हैं , और इसके पीछे मुख्य कारण कार्बन के बढ़ते उत्सर्जन के कारण बढे हुए कार्बन द्वारा गेहूं और चावल के नाइट्रोजन को सोखने के गुण को कम करना हैं और यही गुण गेहूं और चावल में प्रोटीन उत्पन्न करता हैं . अतः जलवायु परिवर्तन इसके लिए जिम्मेदार कारण हैं .
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 किन्तु वर्षों पुरानी अपनी आयुर्वेद संहितायों  का अध्ययन करने पर पता चलता हैं की इस जलवायु परिवर्तन के पीछे मुख्य कारण अधर्म को बताया गया  हैं . हमारे आयुर्वेद के आचार्यों ने बहुत पहले ही बता दिया था कि जब अधर्म का प्रभाव बढ़ने लगता हैं तो वायु , जल , देश और काल इन सबके गुणों में परिवर्तन होने लगता हैं ।  अग्निवेश संहिता में वर्णन मिलता हैं कि भगवान् आत्रेय ने इन वायु , जल , देश और काल कि विकृति में मूल कारण अधर्म को बताया हैं । यथा :-- जब देश, नगर, निगम एवं जनपद के अध्यक्ष धर्म का त्याग करके प्रजा के साथ अधर्म का आचरण करते हैं, तब उनके आश्रित एवं  आश्रितों के आश्रित नगरवासी,  जनपद के निवासी , व्यापारी आदि उस अधर्म को और    अधिक  बढ़ा देते हैं , वह बढ़ा हुआ अधर्म हठात धर्म  को प्रभावित करता हैं ।  अधर्म के कारण देवता भी उन लोगों का त्याग कर देते हैं, अथवा जिन्होनें अपने धर्म को छोड़ दिया हैं उन लोगों से अच्छे लोग विरत होने लगते हैं तथा अधर्म प्रधान लोग जो देवता आदि के द्वारा त्याग कर दिए गए हैं , ऐसे लोगों   की निवास भूमि की ऋतुएँ विकृत हो जाती हैं , देवादि गन वहां उचित समय पर वर्षा नहीं करते, यदि वर्षा होती भी हैं तो वहां विकृत वर्षा होती हैं , हवाएं ठीक ढंग से नहीं बहती , भूमि विकृत हो जाती हैं, तालाब सुख जाते हैं औषधियां और वनस्पतियाँ अपने स्वाभाविक गुणों का त्याग करके विकृति को प्राप्त हो जाती हैं अर्थात उनमें पोषकता की कमी हो जाती हैं ।  इसके अलावा वर्णन मिलता हैं कि समय के बीतने के साथ-साथ पृथ्वी पर पाए जाने वाले समस्त प्राणियों एवं वनस्पतियों के पंचभूतात्मक संगठन में कमी आने लगेगी , जिससे सम्पूर्ण वनस्पतियों  के गुणों और पोषकता में भी कमी होगी और धीरे-धीरे प्राणियों कि आयु का मान भी कम हो जाएगा ।  सृष्टि के प्रारम्भ सतयुग में  मनुष्य अदिति के पुत्रों अर्थात देवतायों के सामान तेजस्वी, अत्यंत विमल, विपुल प्रभाव वाले , शैलवत दृढ शरीर वाले प्रसन्न वर्ण और इन्द्रियों वाले , पवन तुल्य शक्ति वाले , स्फूर्ति एवं पराक्रम युक्त होते थे । 
                                कृतयुग के प्रारम्भ में पृथ्वी आदि पंचमहाभूत अपने-अपने गुणों से पूर्ण होने के कारण उदार सत्त्व ,कर्म, एवं गुण वाले पुरुषों के लिए वनस्पतियाँ, फल, फूल, धान्य आदि भी अपने अचिन्त्य रस, वीर्य, विपाक एवं प्रभावयुक्त थी , लेकिन कृतयुग (सतयुग ) के कुछकाल व्यतीत हो जाने पर कुछ संपन्न लोगों के द्वारा अत्यधिक भोजन करने के कारण उनके शरीर में भारीपन आने लगा , शरीर में भारीपन के कारण गुरुता से थकावट, थकावट से आलस्य, आलस्य से संचय की प्रवृत्ति, संचय की प्रवृत्ति  से परिग्रह और परिग्रह से लोभ उत्पन्न हुआ ।  इसके बाद त्रेतायुग में लोभ से अभिद्रोह, अभिद्रोह से असत्य भाषण करने की प्रवृत्ति जागृत हुयी ।  असत्य भाषण करने से काम, क्रोध, मान, द्वेष, कठोरता, अभिघात, भय, ताप, उद्वेग आदि विकारों की उत्पत्ति हुयी जिसके फलस्वरूप धर्म का एक पाद (चतुर्थांश ) लुप्त हो गया , धर्म के लुप्त हो जाने के कारण पंचमहाभूतों के गुणों में भी एक पाद की कमी आई, जिसके फलस्वरूप वनस्पतियों, फल, फूल, धान्य अनाज आदि के गुणों में भी एक पाद की कमी आने लगी और इससे प्राणियों की आयु में भी कृतयुग (सतयुग ) की तुलना में त्रेतायुग में आयु का एक पाद कम हो गया अर्थात कृतयुग में प्राणियों की आयु ४०० वर्ष होती थी तो वह आयु अब घटकर त्रेतायुग में प्राणियों की आयु ३०० वर्ष होने लगी  ।  इस प्रकार प्रत्येक युग में पृथ्वीआदि पंचमहाभूतों के गुणों में भी पादांश का ह्रास होने से  उनके द्वारा प्रणित वनस्पतियों के स्नेह, वैमल्य, रस, वीर्य, विपाक एवं प्रभाव में भी पादांश का ह्रास हुआ। फलत : पादांशहीन  इन आहार द्रव्यों के सेवन से शरीर का सम्यक पोषण न होने के कारण शरीर में पोषानाभाव हुआ ,क्योंकि मनुष्य का शरीर पूर्व में इन्ही द्रव्यों के द्वारा पोषित था । 
                        जैसे-जैसे त्रेतायुग का क्षय होता गया , उसी क्रम से इन आहार के गुणों में भी पादांश का ह्रास होता गया ,विहार के गुणों में भी अधर्म के कारण कमी आती गयी, जिससे शरीर का उचित पोषण नहीं होने लगा और द्वापर युग तक आयु में पादांश का और  ह्रास  होकर प्राणियों की आयु ३०० वर्ष से घटकर २०० वर्ष हो गयी  ।  इस प्रकार प्रत्येक युग में जैसे-जैसे क्रमशः धर्म के एक पाद का ह्रास होता गया , वैसे-वैसे जीवजगत के गुणों में भी क्रमशः एक-एक पाद का ह्रास होता गया और जीवजगत के गुणों में ह्रास होने से वनस्पतियों ( फसलों ) के स्नेह, वैमल्य, रस, वीर्य, विपाक एवं प्रभाव में भी पादांश का ह्रास होता गया फलत प्रत्येक युग में प्राणियों की आयु का क्षय होता गया और वर्त्तमान कलियुग में प्राणियों की आयु का मान २०० वर्ष से घटकर १०० वर्ष हो गया ।  जिस युग का जितना निर्धारित काल हैं उस युग के निर्धारित काल के १००वें भाग के बीत जाने पर प्राणियों के आयु के मान में एक वर्ष की कमी आ जाती हैं , प्रत्येक युग में अधर्म के प्रभाव के कारण प्राणियों के आयु के मान में और कमी आती रहेगी, वर्त्तमान युग में जहां अधर्म अपनी चरम सीमा पर हैं अतः  पंचमहाभूतों के गुणों में भी  कमी आ गयी हैं , जिसके फलस्वरूप वनस्पतियों, फल, फूल, धान्य अनाज आदि के गुणों में भी कमी होकर पोषकता का ह्रास हो गया हैं । खाध्य पदार्थों में आने वाली इस पोषकता की कमी को जलवायु परिवर्तन का प्रभाव कहे या अधर्म का प्रभाव, लेकिन वस्तुस्थिति यह हैं की अधर्म के कारण ही यह स्थिति उत्पन्न हो रही हैं । 
(uploaded by Mangal Senacha,Bangalore, on 28 feb 2010 at 10.32 am )