सीरवी समाज - मुख्य समाचार

Posted By : Posted By Mangal Senacha on 07 Apr 2012, 01:05:08

अन्ना की आंधी बहे एक साल हो गये. हम देख रहे हैं कि अन्ना की आंधी आई और चली गई. भ्रष्टाचार के खिलाफ लोकपाल के नाम पर शुरू हुई मुहिम औंधे मुंह गिर पड़ी बताई जा रही है, लेकिन ऐसा है नहीं. अन्ना की आंधी आई और राजनीति ने अपनी तिकड़मों से उसके असर को तितर बितर करने की कोशिश भी की लेकिन वह उसमें कामयाब नहीं हो पाई है. अन्ना आंदोलन के एक साल बीत जाने पर बजरंगमुनि मान रहे हैं कि आंधी आई लेकिन गई नहीं. आज भी जनमानस में गुस्सा जस का तस है और अब अन्ना हजारे को सहभागी लोकतंत्र की ओर अपना आंदोलन मोड़ देना चाहिए.

तानाशाही हमेशा ही घातक होती है चाहे वह व्यक्ति की हो या गु्रप की, अथवा संसदीय। लोकतंत्र और तानाशाही बिल्कुल दो विपरीत अवधारणाएं हैं। तानाशाही में शासन का संविधान होता है और लोकतंत्र मे संविधान का शासन। यदि कार्य पालिका, विधायिका तथा संविधान संशोधन एक ही इकाई के पास इकठ्ठा हो तो वह लोकतंत्र नही हो सकता।

स्वतंत्रता के बाद गांधी जी लोक स्वराज्य के पक्षधर थे और नेहरू जी तथा अम्बेडकर जी लोक स्वराज्य की जगह लोकतंत्र के। लोकतंत्र घोषित हुआ किन्तु गांधी जी के मरते ही लोकतंत्र का स्वरूप संसदीय तानाशाही का बना दिया गया। कार्यपालिका पर नियंत्रण, विधायिका के सम्पूर्ण तथा संविधान संषोधन तक के अधिकार संसद ने अपने पास सुरक्षित कर लिये। डा0 लोहिया जयप्रकाश तथा विनोबा से खतरा दिखता था। लोहिया जी से समझौता किया गया, जयप्रकाश को अनदेखा किया गया और विनोबा को सब तरह की सुविधाएं देकर समाज सुधार की लाइन पकडा दी गई। यदि न्यायपालिका ने केशवानंद भारती प्रकरण मे असंवैधानिक तरीके से अंकुश न लगाया होता तो संविधान और संसद तो बिल्कुल ही एक दूसरे के पूरक बन गये थे।

परिणाम हुआ कि संसद लगातार तानाशाही की दिशा मे बढती चली गई और समाज गुलाम होता गया। समाज की भौतिक प्रगति तो पर्याप्त हुई किन्तु नैतिक पतन भी उसी गति से बढता चला गया। राजनीतिज्ञ समाज मे भौतिक प्रगति की भूख पैदा करते रहे और ऐसी अनियंत्रित भूख समाज का नैतिक पतन बढाती रही। समाज के नैतिक पतन को बहाना बना बना कर संसद समाज के अनेक अधिकारो को अपने पास समेटती रही और संसद तथा समाज के बीच अधिकारों की ऐसी असमानता पैदा हुई कि वोट देने के अलावा समाज के पास कोई ऐसा अधिकार नही बचा जिसमे संसद को हस्तक्षेप का अधिकार न हो।

जयप्रकाश आंदोलन की विफलता के बाद लम्बे समय तक कोई मार्ग नही दिखता रहा। दूसरी ओर संसद भी लगातार तानाशाही की राह पर बढती चली गई। सारे देश में गुलामी के विरूद्ध एक तडपन थी किन्तु संसदीय तानाशाही की जकड़न इतनी ज्यादा थी कि इस तड़प की अभिव्यक्ति शून्य थी। जो लोग इस गुलामी के विरूद्ध आवाज भी उठाते थे उनकी आवाज नक्कारखाने में तूती की आवाज से आगे नहीं बढ पाती थी। समाज के समक्ष संसदीय तानाशाही से मुक्ति के लिये चार ही मार्ग दिखते थे। 1) संसद मे जाकर संविधान संशोधन 2) जनमत जगाकर संसद को समझौता हेतु मजबूर करना 3) टयूनीषिया और मिस्र सरीखी अहिंसक क्रान्ति 4) लीबिया सरीखी हिंसक क्रान्ति। पहला प्रयोग जे पी आंदोलन के समय असफल हो चुका था। अहिंसक क्रान्ति स्वयं होती है, कभी की नही जाती। हिंसक क्रान्ति बहुत खतरनाक मार्ग है। अतः ऐसे समय मे अरविन्द केजरीवाल तथा अन्ना हजारे जी ने पहल करके संसद को समझौता हेतु मजबूर करने का मार्ग चुना और उसके लिये उन्होने भ्रष्टाचार जैसे लोकप्रिय मुद्दे को आधार बनाकर शुरूआत की।

वास्तव में अन्ना जी की टीम का वास्तविक उद्देश्य लोकपाल न होकर संसदीय तानाशाही से मुक्ति ही था किन्तु उन्होने शुरूआत लोकपाल से करना ठीक समझा। संसद और सरकार के लोग दो गुट में बंटे दिखाई दिये। एक गुट अन्ना आंदोलन की वास्तविक मंशा को भांपकर इन्हे कुचलना चाहता था तो दूसरा झुककर इनकी आंधी को निकलने देना चाहता था। दूसरे गुट की रणनीति कारगर रही। आंधी आई और निकल गई। संसद और सरकार को यह पता नही था कि अब आंदोलन का दूसरा चरण भी संभव है। दूसरी ओर टीम अन्ना ने भी समझ लिया कि सत्ता का चरित्र एक जैसा ही होता है। उसमे पक्ष और विपक्ष की लडाई वहीं तक होती है जिसमे दो भाई रामलीला मे राम और रावण की भूमिका मे युद्ध का ऐसा कला प्रदर्षन करें कि दर्षक मंत्र मुग्ध होकर अपना सब कुछ भूल जावे। रामलीला से प्राप्त धन लीला समाप्त हाते ही दोनो भाई मिलकर बांट लें। आंदोलन की हवा निकली देखकर तानाशाह संसद का व्यवहार कडा हुआ और आंदोलन अन्ना अपनी योजनानुसार दूसरे चरण मे प्रवेष कर गया।

टीम अन्ना को जरा भी उम्मीद नही थी कि संसद इतनी बडी भूल कर बैठेगी जो इस आंदोलन को पुनःजीवित कर दे। संसद के तानाशाही घमंड ने आनन फानन मे अन्ना की टीम के विरूद्ध अपना पावर दिखाना शुरू कर दिया। अन्ना हजारे की टीम के खिलाफ शरद यादव ने जिस तरह भ्रष्टाचार के विरूद्ध टकराव को संसद के विरूद्ध टकराव बनाने के उद्देष्य से संसद मे भाषण दिया था वह पूरी तरह अमर्यादित था तथा भ्रष्टाचारी राजनेताओ की ढाल के रूप मे था। सांसदो के चेहरे देखकर लगता था कि अधिकांष सांसद शरद जी के कथन के पक्ष मे हैं। देश की जनता को महसूस हुआ कि ये नेता भले ही अलग अलग दलो के हों, भले ही एक दूसरे को कितना भी चोर डाकू कहकर झगड़ा करें किन्तु अन्ततोगत्वा हैं सब एक। किसी एक भी चोर पर जनता हमला करेगी तो सब एकजुट हो जावेंगे।

जंतर मंतर पर चोर की दाढी मे तिनका शब्द पर जिस तरह पूरी संसद एक जुट हो गई वह एक शुभ संकेत है। अब धीरे धीरे लोक और तंत्र के बीच ध्रुवीकरण होगा। हम जिस संसदीय लोकतंत्र मे रह रहे है वह जीवित लोगों का संगठन है जो लोकतंत्र के वास्तविक मालिक लोक को गुलाम बनाकर रखने के लिये तरह तरह के नाटक करता है। इसी नाटक प्रहसन के लिये एक किताब लिख दी गई है जिसका नाम संविधान है। संविधान का वास्तविक मतलब होता है कि वह तंत्र के अधिकतम और लोक के न्यूनतम अधिकारों की सीमा निष्चित करे तथा रक्षा करें।अगर आज व्यवस्था बिगड गई है तो आखिर क्या कारण है कि संविधान उसे रोक नही पाया है? साथ मे और तमाशा देखिये कि संसद जब चाहे अपनी सुविधानुसार संविधान मे मनमाना बदलाव भी कर सकती है। इसमे कोइ दो राय नही हो सकती कि तानाशाही की अपेक्षा संसदीय लोकतंत्र ज्यादा बेहतर विकल्प है लेकिन संसदीय लोकतत्र की अपेक्षा लोक स्वराज्य अर्थात सहभागी लोकतंत्र हमारा अंतिम लक्ष्य होना चाहिये। आज का लोकतंत्र जो कि लोक नियंत्रित तंत्र होने की बजाय लोक नियुक्त तंत्र तक सीमित होता है इसमे लोक अपने ही बनाये तंत्र के हाथ गुलाम हो जाता है। लोक को अगर अपने द्वारा नियंत्रित तंत्र बनाना है तो उसे वर्तमान संसदीय प्रणाली को खारिज करना होगा, इसके अलावा और कोई रास्ता नही है।

प्रश्न यह भी है कि आगे का मार्ग क्या है और क्या होना चाहिये। तानाशाह संसद ने अपनी सीमाएं स्पष्ट कर दी हैं कि वह सब कुछ बरदाष्त कर सकती है किन्तु अपने तानाशाही पावर मे कोई कटौती नही होने देगी। दूसरी ओर समाज के समक्ष भी सिर्फ एक ही विकल्प है। साठ पैंसठ वर्षों के बाद अब हममे आपकी संसदीय तानाशाही को झेलने की स्थिति भी नही है। हमने संसद का अविष्वसनीय चेहरा देख लिया है कि थोडा सा दबाव पडते ही तो संसद अन्ना हजारे को खडे होकर सलामी देने जैसा ऐतिहासिक कदम उठाने तक झुक जाती है तो कुछ ही माह बाद उस व्यक्ति की कमजोरी महसूस होते ही मामूली सी बात पर उसके खिलाफ ऐतिहासिक अपमान जनक शब्दो का भी प्रयोग करने लगती है। यह स्पष्ट है कि इस बार निर्णायक परिणाम आना ही चाहिये। भारत की जनता तानाशाही से मुक्ति के लिये तैयार है। नेतृत्व की कमी अन्ना जी पूरी कर सकते है। अब दबाव बनाकर समझौते की उम्मीद व्यर्थ है। अब छिपकर लोकपाल से शुरूआत व्यर्थ है। अब इस संसद को मंदिर कहने का समय नहीं। यदि हमारा मंदिर भी तानाशाहों के कब्जे मे है तो हम उस मंदिर को जेलखाना और उस जेलखाने को मंदिर मानेंगे जिसमे तानाशाह हमारे लिये संघर्ष करने वाली टीम को बन्द करके रखे। संसदीय तानाशाही को सहभागी लोकतंत्र मे बदलने तक यह लड़ाई जारी रहनी चाहिए।