जब में लिखने बैठता हु, सोचने बैठता हु की क्या लिखू - तब सबसे पहले मेरे मन में ख़याल आता है की मेरे लेखन का दायरा कितना होना चाहिए l सीरवी समाज के आदरणीय गणमान्य नागरिको हर सोच का एक दायरा होता है, आजकल हम सोशल मीडिया पर विभिन्न तरीके के विचारो से रूबरू होते है, प्रत्येक विचार को जब हम पढ़ते है तब हम उसे मन ही मन अपने दायरे में समाहित कर के समझने की कोशिश करते है, प्रत्येक विचार अपने समझने वाले को अलग अलग मानसिकता से ग्रसित करता है, इसमें उस विचार की मूल अवधारण भी कभी कभी गायब हो जाती है, क्यूंकि पाठक की मानसिकता उस विचार में वही देखती है जो वह देखना चाहती है l अर्थार्थ सभी का अपना अपना एक सही होता है और उसी मुताबिक़ मानसिकता भी होती हैहर द्रश्य या लिखित उसी मानसिकता के प्रभाव को इंगित करते हुए समझने में आती है l
मेरे परम मित्र श्री हीराराम गहलोत जो की पेशे से अध्यापक है शिक्षाविद है के द्वारा अभी हाल ही में एक बहुत ही प्रेरणादायक लेख सामने आया है जिसके अनुसार यह चिंता जाहिर की गयी है की "आखिर हमारी यह सोच कब बदलेगी? क्या हम ऐसी घटिया मानसिकता से समाज का उत्थान कर पायेंगे ?" - में भी एक लेखन विचारधारा का व्यक्ति हु और प्रतिउत्तर में इस वक्तव्य का दूसरा पहलु आपके सामने रख रहा हु, कृपया गौर फरमाए l
सबसे पहले में समाज सेवा और सामाजिकता के मंतव्य साबित करता हु l असल में हम जिस कुनबे या समुदाय में रहते है उसके निरंतर संस्कार रीती रिवाज और सामुदायिक नियमावलियो के संपर्क में रहते रहते अपने विचारो को उसी अनुरूप ढाल देते है, हर कार्य के होने का एक जरिया होता है और हर जरिये का एक कारण, हर कारण के पीछे एक प्रेरणा, और हर प्रेरणा के पीछे एक संतुलित मस्तिस्क की भूमिका होती है l सर्वाधिक गतिशील विचारशील मस्तिस्क इतिहास में युवा वर्ग ही रहा है, वह कुंठित है या अग्रेसित है लेकिन अपने विचारो को सामने रखने की जद्दोजहद में शामिल जरुर है, वो बात अलग है की इन युवाओं के विचारो का दायरा कभी कभी इतना व्यापक हो जाता है की इनके विचार किसी पैमाने में फिट नहीं बैठते l
"मेरे सद्कार्यो से मेरे समाज का हो गुणगान l यही मेरे लिए है सबसे बड़ा मान सम्मान ll पढने में कितना संस्कारित वाक्य है, और तकरीबन सभी तरह के आयु वर्ग के लिए फिट है, किन्तु जब हम व्याख्या करे तो यहाँ शब्द सद्कार्य की कोई स्पस्ट व्याख्या नहीं है,
यहाँ सद्कार्य को तात्पर्य करना बहुत आवश्यक है, होता यु है की अक्सर यह देखा जाता है की हमारे युवा वर्ग ने हर उस सद्कार्य की अपनी अपनी परिभाषा गढ़ ली है जिसे हम या वे समाज हित में मानते है, यहाँ तक की यह भी देखा गया है की परमार्थ के किये जाने वाले कार्यो को संधि विच्छेद कर परम + अर्थ अर्थार्थ सबसे अधिक धन कमाने वाले सामाजिक कार्यो की विश्लेषित नजर से देखते है दिखाते है, ऐसे में स्व्रुची सामाजिकता निभाने वाले, और अपनी मानसिकता से उत्साहित होकर परमार्थ करने वाले उपेक्षित टिप्पणियों से आहत हुए बिना नहीं रहते l हमने युवाओं को बहुत बार यह कहते हुए भी सुना है की हम्हे अपने विचार रखने के लिए मंच पर जगह नहीं दी जाती, लेकिन जब मंच का दायरा सिमित हो तब वक्तव्यों का दायरा बड़ा हो जाए तो यकीनन गुणगान सद्कार्यो का नहीं होकर उन टिप्पणियों का होता है जिनका अस्तित्व में कोई स्थान होना भी सुनिश्चित नहीं होता l आज का युवा अपने मन मस्तिस्क में समाई सोशल मीडिया सूचनाओं के भण्डार से इतना अटा पड़ा है की उनके लिए हर कार्य में कोई ना कोई त्रुटी है और वह अग्रेषित है अपने समाज के लिए की इस त्रुटी को सबसे पहले उसने खोजा और उसे ठीक करने की जिम्मेदारी भी उसी की है, और जब अनुभवी उसे उस त्रुटी का विश्लेषण करने की और अग्रसर करता है तब जवाब में उसकी अग्रेसित भावनाए जिस दायरे से तार्किक बहस की और ले जाती है उसी दायरे की हम बात कर रहे है l
असल में सामाजिक विचार है - परिवार नियोजन - ताकि समाज का परिवार संतुलित हो और सक्षमता की और अग्रसर हो, परिवार का प्रत्येक सदस्य की अच्छी परवरिश हो और वह समाज में उन्नति की और अग्रसर हो - ऐसे विचारों के दायरे समाज तक ही सिमित होते है, किन्तु यदि दायरा विशाल हो सोच का तो इसे तुरंत हिन्दू धर्म की से जोड़ कर एक विशाल मुल्क से जोड़ा जाने लग जाता है जहा दुसरे धर्म की बढती जनसँख्या इस विचार को गलत साबित करने के तर्कों से भरपूर हो जाती है, ऐसा नहीं है की यह विचार गलत है .. क्यूंकि सभी का अपना अपना सही होता है और जो सही नहीं है वाही गलत होता है, ऐसे में जो स्वीकार है वही सही है इस अवधारणा को पचा पाना थोडा मुश्किल तर्क है l
मेरे टॉपिक है की बहुत जल्द ही हमारी सोच बदलने वाली है - क्यूंकि हम ने अपना दायरा बढ़ा लिया है, हम अपने परिवार और समाज के उत्थान के सभी कारक तत्वों के विचारो की बजाय देश दुनिया और राजनीती को अपने विचारो में समाहित कर लिया है, अब हम तार्किक बहस में कभी संवेधानिक नियमो की दुहाई देने लग गए है तो कभी कानून सम्मत प्रावधानों और नियमो की तुलना करते है, कभी हम अपने अधिअकारो की पुरजोर वकालत करते दिखाई दे रहे है तो कभी हम समाज की वर्तमान और भूतकाल की व्यवस्थाओं में शामिल उन निर्णयों पर अपनी सोच थोप रहे है जिन्हें लागू करने के उन तत्कालीन देश काल परिस्थिति को दायरे में रखना उचित नहीं समझ पा रहे है ... हम इसी बीच एक चीज को सिरे से भूलते जा रहे है .. और वह है कर्त्तव्य ... क्यूंकि बहुत जल्द हमारी सोच बदलने वाली है अभी हम तार्किक बहस का हिस्सा है, कुछ समय बाद हम थोपने वाली संस्कृति के पैमाने बन जाने वाले है, क्यूंकि हर बहस में कर्त्तव्य नदारद होता जा रहा है l
इस भाग दौड़ भरी जीवन शैली में हर अकार्य विचारो से और ऑनलाइन व्यवहार से साबित करने की चेष्टा ने कर्त्तव्य से विमुखता जैसी स्थिति पैदा कर दी है, इन वर्षो में सोशल मीडिया ने युवाओं को अनेकानेक मौके दिए है जब वे अपने अधिकारों को परोक्ष रूप से सबके सामने प्रदर्शित करे, चूँकि कभी के युवा आज के बुजुर्ग है, और देश काल परिस्थिति में बदलाव है, उपरांत इसके वर्तमान के बुजुर्ग भी कर्त्तव्य के प्रति संवेदनशीलता के अधिग्रहण के शिकार है, आज समाज जिस रफ़्तार से चल रहा है उसमे सामाजिकता का र्पतिशत नगण्य है, ऐसा इसलिए क्यूंकि अभी तक समाज की समरूपता सक्षमता में एकसार नहीं है, अपने अपने आईडिया भागो भागो में लागू हो रहे है, और उन आईडिया को साबित करने के अधिअकारो की तार्किकता पर बहस हो रही है, इसी बीच कुछ कर्त्तव्य जनित कार्य यदा कदा समाज के समक्ष जब सामने आते है तब, प्रतिक्रिया स्वरूप जो विचार रखे जा रहे है वह निश्चित तौर पर बदलाव का संकेत दे रहे है की - आने वाला वक़्त हमारी सोच को बदलने वाला है l
हम अपने दायरे (समाज, परिवार) से विभक्त होकर एक बड़े दायरे (देश दुनिया) से लिपटे हुए उन समस्याओं का समाधान कर रहे है जो कभी हमारे समाज का हिस्सा थी ही नहीं l हम्हे विचार करना होगा एक बार पुन: की हमारे समाज की अछाइयो का प्रचार प्रसार इतना अधिक हो की अन्य समाज की बुराइया भी इधर फटकने की कोशिश नहीं करे l वर्तमान में युवा वर्ग जिन विचारो से आशंकित है असल में वे विचार हमारे समाज के है ही नहीं, हमने उन आशंकाओं की हील हुज्जत करते करते उन्हें आमंत्रण देना शुरू कर दिया है, और चूँकि मनुष्य एक जिज्ञासु सामाजिक प्राणी है, हर वह विषय और वस्तु जो उसके दायरे में नहीं है उसे अपने दायरे में आजमाने की कोशिश करने से गुरेज नहीं करता l इसी प्रक्रिया में हमारी सोच बदल रही है l
हम उस युग की तरफ जा रहे है जिधर कर्तव्यों को गौण कर अधिकारों की पेरवी किया जाना सर्वाधिक शगल बन कर उभरने वाला है l
विगत छ सात दशको से हमारे समाज ने अपना पारंपरिक कार्य और जीवन शैली को छोड़कर अन्य संस्कृतियों से समन्वय किया है और हमने जाने अनजाने ही सही समाज की परिभाषा को अपने अपने अनुसार गढ़ा भी है, हमने विभक्त होना इसलिए स्वीकार किया क्यूंकि हमने अपने अस्तित्व को बनाए और बचाए रखने के तरीको पर विश्वाश रखा, जो की हमारी पोरानिक पहचान है l
असल में हम आपस में उलझ नहीं रहे, हम आपस में सुलझ नहीं पा रहे l
बहुत जल्द हमारी सोच बदलने वाली है क्यूंकि
दुनिया एक बाजार है, और बाजार का एक कायदा है
कायदे में ही फायदा है, हर विषय वस्तु की एक कीमत होती है
बाजार कीमत के आधार पर चलता है,
हम्हे हमारे विचारो की कीमत तय करनी ही होगी
क्यंकि आखिर किसी ना किसी को तो इसे चुकाना ही होगा
उक्त टिपण्णी सिर्फ युवा वर्ग के लिए नहीं है, यह सभी पर सामान रूप से लागू है चाहे वह आवास में हो चाहे प्रवास में, चाहे पदाधिकारी हो चाहे नागरिक हो, चाहे शिक्षाविद हो चाहे भामाशाह हो, चाहे धर्मात्मा हो चाहे पुजारी हो l
हमारी सोच बदल रही है, हम अपने अधिकारों के चलते अपने कर्तव्यों से विमुख होते जा रहे है