सीरवी समाज - ब्लॉग

शिक्षा हम्हे अपनी मुश्किलों से आगे देखना सिखाती है लेकिन वर्तमान सारी शिक्षा ईष्र्या पर खड़ी हुई है। - संकलन (विचारो की दुनिया) - ‘युवा और क्रांति’ विषय पर विद्यार्थियों के बीच एक प्रवचनः 1968-69 - ओशो
Posted By : Posted By seervi on 06 Aug 2019, 11:35:55

मैं बहुत आनंदित हुआ कि युवकों और विद्यार्थियों के बीच थोड़ी सी बात कहने को मिलेगी। युवकों के लिए जो सबसे पहली बात मुझे खयाल में आती है वह यह है, और फिर उस पर ही मैं और कुछ बातें विस्तार से आज आपसे कहूंगा।

जो बूढ़े हैं उनके पीछे दुनिया होती है, उनके लिए अतीत होता है, जो बीत गया वही होता है। बच्चे भविष्य की कल्पना और कामना करते हैं, बूढ़े अतीत की चिंता और विचार करते हैं। जवान के लिए न तो भविष्य होता है और न अतीत होता है, उसे केवल वर्तमान होता है। यदि आप युवक हैं तो आप केवल वर्तमान में जीने की सामथ्र्य से ही युवक होते हैं। यदि आपके मन में भी पीछे का चिंतन चलता है तो आपने बूढ़ा होना शुरू कर दिया। अगर अभी भी भविष्य की कल्पनाएं आपके मन में चलती हैं तो अभी आप बच्चे हैं।

युवा अवस्था बीच का एक संतुलन बिंदु है। मन की ऐसी अवस्था है, जब न कोई भविष्य होता है, और न कोई अतीत होता है। जब हम ठीक-ठीक वर्तमान में जीते हैं तो चित्त युवा होता है, यंग होता है, ताजा होता है, जीवित होता है, लिविंग होता है। सच यह है कि वर्तमान के अतिरिक्त और किसी की कोई सत्ता नहीं है। न तो अतीत की कोई सत्ता है, न भविष्य की कोई सत्ता है, सत्ता है तो वर्तमान की है। वह जो मौजूद क्षण है, उसकी है।

कितने लोग हैं जो मौजूद क्षण में जीते हों? जो मौजूद क्षण में जीता है,उसे मैं युवा कहता हूं। जो मौजूद क्षण में जीने की सामथ्र्य को उपलब्ध हो जाता है, उसका मस्तिष्क युवा है; बूढ़ा नहीं है, बच्चा नहीं है। लेकिन अक्सर यह होता है कि लोग बच्चे से सीधे बूढ़े हो जाते हैं, युवा बहुत कम लोग हो पाते हैं। जरूरी नहीं है कि युवक होना...आवश्यक नहीं है कि आप युवा अवस्था से गुजरें ही--यह अनिवार्य बात नहीं है। और बड़े मजे की बात है, जो एक बार युवा हो जाता है वह बूढ़ा नहीं होता। क्योंकि जिसे युवक होने का राज और सीक्रेट पता चल जाता है उसे बूढ़े होने की कोई जरूरत नहीं रह जाती। शरीर बूढ़ा होगा, आएगा और जाएगा लेकिन चित्त एक सतत यौवन में, सतत जवान, सतेज और युवक बना रह सकता है।

तो पहली बात यह कहूं कि केवल इस कारण अपने को युवक मत समझ लेना कि उम्र बूढ़े और बच्चे के बीच में है। इससे कोई युवा नहीं होता। युवा होना बड़ी गहरी बात है। उसके संबंध में कुछ थोड़ी सी बात कहूंगा। और यह भी कहा कि आप विद्यार्थी हैं, यह भी मुझे नहीं दिखाई पड़ता। अगर दुनिया में विद्यार्थी हों तो ज्ञान तो बहुत बढ़ जाना चाहिए, लेकिन विद्यार्थी तो बढ़ते जाते हैं, ज्ञान तो बढ़ता नहीं। बल्कि अज्ञान घना होता चला जाता है। विद्यार्थी तो बढ़ते चले जाते हैं, विद्यापीठ बढ़ते चले जाते हैं, लेकिन दुनिया रोज बुरी से बुरी होती चली जाती है। अगर ज्ञान विकसित होता तो परिणाम में दुनिया बेहतर होनी चाहिए। अगर मुझे कोई किसी बगिया में ले जाए और कहे कि हमने खूब फूल लगाए हैं, फूल के पौधे बढ़ते चले जाते हैं, फूल लगते चले जाते हैं और बगिया में बदबू बढ़ती चली जाए, गंदगी बढ़ती चली जाए, सुगंध की जगह दुर्गंध बढ़ने लगे तो हैरानी होगी। और हमें पूछना पड़ेगा कि ये फूल और ये पौधे, ये किस भांति बढ़ रहे हैं? यहां दुर्गंध तो बढ़ती चली जाती है!

विद्यापीठ बढ़ते हैं, पुस्तकें बढ़ती हैं, मैं सुनता हूं कि कोई पांच हजार ग्रंथ प्रति सप्ताह छप जाते हैं। सारी दुनिया में पांच हजार ग्रंथ प्रति सप्ताह छप जाते हैं! पांच हजार ग्रंथ जिस दुनिया में प्रति सप्ताह बढ़ते हों, रोज-रोज विद्यार्थियों की संख्या बढ़ती चली जाती हो, शिक्षा बढ़ती चली जाती हो, लेकिन वह दुनिया तो नीचे गिरती चली जाती हो! वहां तो युद्ध और घातक से घातक हुए चले जाते हैं, वहां तो घृणा और व्यापक हुई जाती है, ईष्र्या और जलन तीव्र हुई जाती है तो जरूर कहीं कोई बुनियाद में खराबी है। और इस तरह खराबी का जिम्मा और किसी पर इतना ज्यादा नहीं है जितना उन पर, जिनका शिक्षा से संबंध है--चाहे वे शिक्षक हों, चाहे शिक्षार्थी हों।

दुनिया इधर पांच हजार वर्षों में बहुत सी क्रांतियां करके देख ली। उसने आर्थिक क्रांतियां की हैं और राजनीतिक क्रांतियां की हैं, लेकिन अब तक शिक्षा में कोई बुनियादी क्रांति नहीं हुई। और यह विचारणीय हो गया है कि क्या शिक्षा में कोई बुनियादी क्रांति हुए बिना मनुष्य की संस्कृति में कोई क्रांति हो सकती है? नहीं हो सकती है!--क्योंकि शिक्षा आपके मस्तिष्क के ढांचे को निर्धारित कर देती है और फिर उस ढांचे से छूटना करीब-करीब कठिन और असंभव हो जाता है। पंद्रह या बीस साल एक युवक शिक्षा लेगा, पंद्रह बीस साल में उसके मस्तिष्क का ढांचा निर्णीत हो जाएगा, फिर जीवन भर भी उस ढांचे से छूटना बहुत कठिन है। जिनमें साहस है, जिनमें थोड़ी हिम्मत है वे छूट सकते हैं; लेकिन सामान्यतया छूट न सकेंगे।

यह ढांचा कहीं गलत तो नहीं है, जो शिक्षा हमें देती है? निश्चित ही यह ढांचा गलत होना चाहिए क्योंकि परिणाम गलत हैं। और परिणाम ही परीक्षा देते हैं, परिणाम ही बताते हैं कि हम जो कर रहे हैं वह ठीक है या गलत है।

ये बच्चे जो शिक्षित होकर निकलते हैं, ये विकृत मनुष्य होकर निकलते हैं। ऐसा न सोचें कि इसका यह अर्थ है कि मैं आपसे यह कहता हूं कि पीछे पुराने दिनों में जो शिक्षा थी, वह अच्छी थी; उस पर लौट आना चाहिए। ये सब नासमझी की बातें हैं। पीछे लौटना कभी दुनिया में नहीं होता। और पीछे भी कोई बुनियादी रूप से ठीक शिक्षा नहीं है। अन्यथा यह गलत शिक्षा पैदा नहीं होती। क्योंकि ठीक से गलत कभी पैदा नहीं होता। गलत से ही गलत पैदा होता रहता है। पीछे भी गलत था, आज भी गलत है।

गलती के कौन से आधार हैं, वह थोड़ी सी मैं आपसे बात करूं।

यह हमारी पूरी की पूरी शिक्षा किस केंद्र पर घूमती है, वह केंद्र ही गलत है। उस केंद्र के कारण सारी तकलीफ पैदा होती है। वह केंद्र है, एंबीशन। हमारी यह सारी शिक्षा एम्बिशन के केंद्र पर घूमती है, महत्वाकांक्षा के केंद्र पर घूमती है।

आपको क्या सिखाया जाता है? हमको क्या सिखाया जाता है? हमें सिखाई जाती है महत्वाकांक्षा। हमें सिखाई जाती है एक दौड़, कि आगे हो जाओ; दूसरों से आगे हो जाओ। छोटा सा बच्चा, के.जी. में पढ़ने जाता है, उसे भी, एक छोटे से बच्चे को भी हम एंग्जाइटी पैदा कर देते हैं--प्रथम होने की एंग्जाइटी! इससे बड़ी कोई एंग्जाइटी नहीं है, इससे बड़ी कोई चिंता नहीं है दुनिया में। दुनिया में एक ही चिंता है कि मैं दूसरे से आगे कैसे हो जाऊं, दूसरों को कैसे पीछे छोड़ दूं!

छोटा सा बच्चा है, छोटे से स्कूल में पढ़ने जाता है। उसके मन में भी हम चिंता का भूत सवार कर देते हैं, उसे भी आगे होना है। वह भी पुरस्कृत होगा, अगर आगे आएगा। अपमानित होगा अगर द्वितीय आएगा। अपमानित होगा, अगर असफल होगा। सफल होगा तो सम्मानित होगा। शिक्षक आदर करेंगे, घर में आदर मिलेगा। हम उसके भीतर प्रतियोगिता पैदा कर रहे हैं। और प्रतियोगिता एक तरह का ज्वर है, एक तरह का बुखार है। जरूर ज्वर में ताकत आ जाती है। अगर आप बुखार में हैं तो आप ज्यादा तेजी से दौड़ सकते हैं। अगर आप बुखार में हैं तो आप ज्यादा तेजी से गालियां बक सकते हैं। अगर आप बुखार में हैं तो आप ऐसी बातें कर सकते हैं जो कि आप सामान्यतया नहीं कर सकते। बुखार में, एक ज्वर में त्वरा आ जाती है, एक शक्ति आ जाती है।

इस सारी शिक्षा की दौड़ को हमने बुखार पर आधारित किया है। हम कहते हैं कि दूसरे से आगे निकलो। अहंकार को चोट लगती है बच्चों के। वे दूसरों से आगे होने के लिए उत्सुक हो जाते हैं। जब वे दूसरों से आगे होना चाहते हैं तो श्रम करते हैं, मेहनत करते हैं, अपनी सारी शक्ति लगा देते हैं, अपने पूरे प्राण जुटा देते हैं।

लेकिन किसलिए? इसलिए कि उन्हें दूसरों से आगे होना है। एक प्रतिस्पर्धा है, एक काम्पिटीशन है। फिर यह काम्पिटीशन का ज्वर उनको पकड़ जाता है। जब वे शिक्षा के जगत से बाहर आते हैं, पढ़-लिख कर बाहर निकलते हैं तब भी ये ज्वर उन्हें पकड़े रहता है। उन्हें दूसरे से बड़ा मकान बनाना है, उन्हें दूसरे से बड़ी दुकान खोलनी है, उन्हें दूसरे से बड़े पद पर पहुंचना है, छोटे क्लर्क को बड़ा क्लर्क होना है, अध्यापक को प्रधान अध्यापक होना है, डिप्टी मिनिस्टर को मिनिस्टर होना है, किसी को राष्ट्रपति होना है, किसी को कुछ होना है। एक पागलपन की दौड़ पकड़ती है। फिर जिंदगी भर प्रत्येक को कुछ न कुछ होने का पागलपन सवार रहता है। और इस पागलपन की दौड़ में उनके जीवन की सारी शांति, सारी शक्ति, सारा सामथ्र्य नष्ट हो जाता है।

आखिर में वे क्या पाते हैं? आखिर में वे कहीं भी नहीं पहुंचते। क्योंकि वे कहीं भी पहुंच जाएं, जहां भी पहुंच जाएंगे, हमेशा उनसे आगे उन्हें दिखाई पड़ेंगे। और जब तक उनके कोई भी आगे है तब तक उन्हें शांति नहीं मिल सकती। और इस दुनिया में अब तक कोई ऐसा आदमी नहीं हुआ जिसे ऐसा अनुभव हुआ हो कि मैं सबके आगे आ गया हूं, क्योंकि कुछ लोग हमेशा उससे आगे हैं। यह दुनिया बड़ी है और हम सब एक गोल घेरे में खड़े हैं। अगर हम एक गोल वृत्त में खड़े हो जाएं, तो कौन आगे है, कौन पीछे है? हरेक के हर कोई आगे है। और तब दौड़ चलती चली जाती है, दौड़ चलती चली जाती है। कभी कोई आदमी सबसे आगे आया है अब तक? आज तक कोई न कोई आगे आ जाता। हम जरूर चक्कर में खड़े हैं। एक सर्किल में घूम रहे हैं। उसमें कोई न कोई हमारे आगे है हमेशा। दुनिया में अब तक कोई आदमी आगे नहीं आ सका। लेकिन फिर भी हम बच्चों को सिखा रहे हैं कि तुम आगे आ जाओ। हम उनको पागलपन सिखा रहे हैं। हम एक ऐसी गलत बात सिखा रहे हैं कि उस दौड़ में वे पड़ जाएंगे। उस दौड़ में वे अपना जीवन नष्ट कर देंगे।

सारी शिक्षा ईष्र्या पर खड़ी हुई है। हम लोगों से कहते हैं, ईष्र्या मत करो, हिंसा मत करो, जलन मत करो, लेकिन हमारी पूरी शिक्षा ईष्र्या पर खड़ी है। एक बच्चे को दिखा कर हम दूसरे बच्चे से कहते हैं देखो, यह कितना बुद्धिमान है और तुम कितने बुद्धिहीन हो। इस जैसे बनो। हम ईष्र्या जगा रहे हैं, हम उसके भीतर जलन पैदा कर रहे हैं। उसे भी उसके जैसा होना है। उसे भी इसके आगे निकलना है।

हम उसके भीतर क्या पैदा कर रहे हैं? हम जहर डाल रहे हैं उसके भीतर ईष्र्या का। जब भी हम किसी बच्चे से कहते हैं, दूसरे बच्चों से आगे हो जाओ तो हम जहर डाल रहे हैं; तो हम उस बच्चे को प्रेम नहीं करते। यह जहर जीवन भर उसकी नसों में घूमता रहेगा, उसके मन में घूमता रहेगा। यह हमेशा आगे होना चाहेगा। हमेशा एक आगे होने की दौड़ उसको पकड़े रहेगी। लेकिन बड़ा मजा यह है कि कभी कोई आगे हुआ है? और क्या किसी दूसरे से आगे होने में कोई आनंद मिल सकता है? आनंद से किसी के आगे खड़े होने का कौन सा वास्ता है? शांति का किसी के आगे खड़े होने से कौन सा संबंध है? नहीं, यह बुनियादी रूप से गलत बात है।

यह एंबीशन और उसके केंद्र पर घूमती हुई शिक्षा गलत है और अगर हमें एक नई दुनिया बनानी हो तो हमें इस केंद्र को बदलना होगा और कोई नया केंद्र पैदा करना होगा।

कौन सा नया केंद्र इसकी जगह हो सकता है? मैं आपसे कहना चाहता हूं,प्रतिस्पर्धा शिक्षा का केंद्र नहीं हो सकता; न होना चाहिए। शिक्षा का केंद्र प्रेम होना चाहिए।

प्रेम से मेरा क्या अर्थ है? हम यहां इतने लोग बैठे हैं, अगर हम सारे लोग संगीत सीखना चाहें, तो एक तो सीखने का रास्ता यह है कि हम दूसरों से आगे निकलने की कोशिश में, त्वरा में पड़ जाएं, तो हम संगीत सीख सकेंगे उस ज्वर में? दूसरे हमें पीछे न छोड़ दें, अपमानित न कर दें, हम कहीं बेइज्जत न हो जाएं, हमारा कहीं असम्मान न हो जाए, हम कहीं असफल सिद्ध न हो जाएं, कहीं हम दुनिया में नो-बडी सिद्ध न हो जाएं--समबडी हमें होना है, आगे होना है, किसी से कुछ होकर दिखलाना है--हम इस दौड़ में संगीत सीखेंगे! लेकिन क्या वह संगीत का प्रेम होगा, या कि अहंकार का प्रेम होगा? और जब अहंकार का प्रेम होगा तो संगीत कैसे सीखा जा सकता है? जहां अहंकार का प्रेम होगा वहां संगीत कैसे सीखा जा सकता है?

सीखने के लिए तो विनम्रता चाहिए। और यह शिक्षा पूरी की पूरी अहंकार सिखाती है, विनम्रता सिखाती नहीं। हालांकि शिक्षक नाराज है, वह कहता है विद्यार्थियों में विनम्रता नहीं है। विनम्रता उसमें कैसे हो सकती है? जब हम विद्यार्थियों को यह सिखाते हैं कि तुम दूसरों से आगे हो जाओ तो हम उसे अहंकार सिखाते हैं, इगो सिखाते हैं। तो उसमें विनम्रता कैसे हो सकती है? झूठी बात है। उसमें विनम्रता कभी नहीं हो सकती है, न होनी चाहिए। क्योंकि हम सिखा रहे हैं उसको अहंकार--दूसरों से आगे हो जाओ। जब वह दूसरों से आगे होता है तभी उसकी विनम्रता नष्ट हो जाती है और वह अहंकार से पीड़ित हो जाता है। फिर जब सारे लोग अहंकार से पीड़ित होकर लगेंगे, संगीत नहीं सीख सकते, दुनिया में कुछ भी नहीं सीख सकते।

सीखने का सूत्र है, विनम्रता, ह्युमिलिटी। सीखने का सूत्र है, निर-अहंकारिता। लेकिन इन सबके अहंकार तो उकसाए जा रहे हैं। इनके तो अहंकार को आग लगाई जा रही है कि तुम आगे निकलो, तुम्हें विश्वविद्यालय में स्वर्ण-पदक लाने हैं। तुम्हें भारतरत्न बनना है, किसी को राष्ट्रपति बनना है, किसी को कुछ बनना है। सारे लोगों के मन में ईष्र्या की आग को जलाया जा रहा है, अहंकार को उत्तेजित किया जा रहा है। संगीत कैसे ये सीखेंगे, गणित कैसे ये सीखेंगे क्योंकि कुछ भी सीखने के लिए...जीवन का तत्व ये कैसे सीखेंगे? कुछ भी सीखने के लिए विनम्रता चाहिए। कुछ भी सीखने के लिए अप्रतियोगी, नाॅन-एंबीशस माइंड चाहिए।

हां, सीखने का दूसरा सूत्र भी हो सकता है और वह सूत्र है, संगीत से प्रेम। संगीतज्ञ से प्रतिस्पर्धा नहीं, संगीत से प्रेम। निकट के विद्यार्थी से प्रतियोगिता नहीं, बल्कि जिस विषय को हम सीखना चाहते हैं उसके प्रति तल्लीनता, उसके प्रति आनंद, उसके प्रति प्रेम। उचित है कि हम गणित के प्रति प्रेम सिखाएं, दूसरे गणित सीखने वाले के प्रति प्रतियोगिता न सिखाएं। उचित है, हम संगीत के प्रति प्रेम को जन्माएं, दूसरे संगीत सीखने वाले के प्रति प्रतिस्पर्धा को न जन्माएं। जरूर संगीत सीखा जा सकता है संगीत के प्रेम के कारण। और तभी संगीत सीखा जा सकता है। और तभी सब कुछ सीखा जा सकता है, जब हम किसी चीज को प्रेम करते हैं, तभी सीखना संभव है। सब सीखना प्रेम का अनुसरण करना है। लेकिन प्रेम तो हमारे भीतर सिखाया नहीं जाता। हमारी शिक्षा का प्रेम से कोई संबंध नहीं है।

इसलिए अक्सर यह होता है कि अगर आपने साहित्य पढ़ा है विश्वविद्यालय में और विश्वविद्यालयों से निकलने के बाद आप फिर कभी साहित्य को उठाकर न देखेंगे, क्योंकि विश्वविद्यालय आपको साहित्य से इतना उबा देंगे, इतना बोर कर देंगे, इतना घबड़ा देंगे कि फिर साहित्य उठाकर देखने वाले नहीं हैं। अगर आपने विश्वविद्यालय में कविताएं पढ़ी हैं तो आपका जीवन भर के लिए कविता का प्रेम और आनंद नष्ट हो जाएगा। इसलिए नष्ट हो जाएगा कि वह अहंकार की दौड़ में पढ़ी गई थीं, परीक्षाएं पास करने के लिए पढ़ी गई थीं, आगे निकलने के लिए पढ़ी गई थीं। काव्य से कोई प्रेम पैदा नहीं हुआ था।

और इसलिए अक्सर यह होता है कि हमारी सारी शिक्षा प्रतिभा को नष्ट कर देती है। इमर्सन ने एक युवक की तारीफ में एक बात कही थी। वह गांव का पहला ग्रेजुएट था। इमर्सन से लोगों ने कहा कि आप भी उसके सम्मान में दो शब्द कहें। उन्होंने कहाः मैं महीने भर उस युवक को जांचूं, परखूं, फिर कुछ कह सकता हूं। महीने भर बाद वे उस समारोह में सम्मिलित हुए और उन्होंने कहाः मुझे यह युवक बहुत पसंद आया। और मैं इसकी तारीफ करता हूं। यह अदभुत है। और क्यों तारीफ करता हूं? उन्होंने कहाः इसलिए तारीफ करता हूं कि यह विश्वविद्यालय की शिक्षा के बावजूद भी यह अपनी प्रतिभा को बचाने में समर्थ हो सका है--इसलिए मैं इसकी तारीफ करता हूं। और हालत ऐसी ही है।

अदभुत हैं वे लोग जो विश्वविद्यालय के घनचक्कर से बाहर निकल जाएं और उनकी प्रतिभा शेष रह जाए। वह नष्ट हो जाएगी, वह नष्ट कर दी जाएगी। सारे के सारे आधार शिक्षा के बुनियादी रूप से गलत हैं। और फिर जब इस तरह की शिक्षा होगी, यह प्रतिस्पर्धा की, प्रतियोगिता की, एंबीशन की होगी, लड़ाइयों की, युद्धों की, संघर्षों की होगी। ये बच्चे भी बड़े होंगे कल। ये बड़े होकर लड़ेंगे। समूह की तरह लड़ेंगे, समाज की तरह लड़ेंगे, संप्रदाय की तरह लड़ेंगे, राष्ट्र की तरह लड़ेंगे क्योंकि इनको आगे निकलना है, इनको सबसे आगे निकलना है। मुल्क की तरह लड़ेंगे। दुनिया भर के मुल्क लड़ रहे हैं।

क्यों लड़ रहे हैं? क्योंकि जिन बच्चों को शिक्षा दी गई है उन सबको सिवाय लड़ने को और कुछ भी नहीं सिखाया गया है। उन्हें प्रेम सिखाया नहीं गया, उन्हें ईष्र्या सिखाई गई, जलन सिखाई गई। दो महायुद्ध हुए इन थोड़े से दिनों में--दस करोड़ लोगों की हत्या हुई। यह शिक्षा जरूर गलत होनी चाहिए। ऐसी कैसी शिक्षा है यह कि दुनिया दस-पांच वर्षों में करोड़ों लोगों की हत्या करे! ये विश्वविद्यालय से निकले लड़के किस भांति के हैं, इनका मस्तिष्क कैसा रुग्ण है! यह कैसे संभव है कि रोज दुनिया में लड़ाई चलती रहे और विश्वविद्यालय भी बनते रहें, यह कैसे संभव है?

अगर विश्वविद्यालय सच्चे हैं, अगर शिक्षा वास्तविक है तो दुनिया से लड़ाई विलीन हो जानी चाहिए। युद्ध दुनिया में नहीं होना चाहिए, क्योंकि शिक्षित व्यक्ति लड़ेगा? सुसंस्कृत व्यक्ति लड़ेगा? सभ्य व्यक्ति लड़ेगा? हत्या करेगा? एक दो लोगों की नहीं, करोड़ों लोगों की हत्या करेगा? लेकिन हम यह कर रहे हैं और यह हमारा सुशिक्षित व्यक्ति लड़ेगा, युद्ध में जाएगा! और इसे युद्ध की कोई भी तरकीब का कोई पता नहीं चलता, नहीं चल सकता है। क्योंकि इसके भीतर भी लड़ाई के ही बीज डाले गए हैं। हर दूसरे से लड़ने के बीज डाले गए हैं। बल्कि इसे लड़ाई में रस आएगा, सुख आएगा।

आप देखते हैं, जब भी लड़ाई होती है, आप प्रफुल्लित हो जाते हैं। यह जरूर बीमार स्थिति है। जब लड़ाई होती है तब लोगों के चेहरों पर रौनक दिखाई पड़ती है। लोग कुछ आनंद में, उत्साह में मालूम पड़ते हैं। हिंदुस्तान से पाकिस्तान लड़ता हो, हिंदुस्तान से चीन लड़ता हो या कहीं और कुछ बेवकूफी होती हो, कहीं कोई और नासमझी होती हो तो लोग कितने खुश मालूम होते हैं। रातें और दिन उनके ताजगी से भर जाते हैं। सुबह से अखबार पढ़ते हैं, रेडियो सुनते हैं, चर्चा करते हैं। उनके चेहरे की रौनक देखिए, जैसे बहुत खुशी का कोई मौका आ गया है। उनको लड़ाई के लिए तैयार किया गया है। चैबीस घंटे लड़ाई के सिवाय उन्हें और किसी बात में रस नहीं है।

रास्ते पर जाते हों, दो आदमी लड़ रहे हों, हजार जरूरी काम छोड़ कर सैकड़ों लोग देखने लगेंगे। क्या पागलपन है! दो आदमियों को लड़ते देखना किसी कुरूप चित्त का लक्षण है, किसी सुसंस्कृत चित्त का लक्षण नहीं है। एक अग्ली माइंड का लक्षण है दो आदमियों को लड़ते देख कर रस अनुभव करना। लेकिन लोग सारी दुनिया में यही कर रहे हैं, किसी एक मुल्क में नहीं। हमारे मन की तैयारी ऐसी है। जब एक आदमी हार जाता है और जो आदमी जीत जाता है, हम जीते हुए आदमी के गले में मालाएं पहनाते हैं और हारे आदमी को उपेक्षित कर देते हैं। यह कुरूप चित्त का लक्षण है। यह दुष्ट और हिंसक चित्त का लक्षण है। आखिर इसमें क्या बात हो गई कि जो आदमी जीत गया है उसके गले में आप मालाएं पहनाएं, और जो आदमी हार गया है उसकी उपेक्षा कर दें? क्या इसको...आपके भीतर बीमार आदमी का आपको दर्शन नहीं होता? क्या हारे हुए के प्रति दया और प्रेम आना चाहिए या नहीं, या कि जीते हुए के प्रति सम्मान उमड़ना चाहिए!

अगर शिक्षा उचित होगी तो जो पराजित है उसके प्रति दया और सम्मान उमड़ेगा। जो जीत गया है, उसके प्रति हैरानी होगी कि कैसा दुष्ट आदमी है कि उसने जीतना चाहा, उसने किसी को पराजित करना चाहा। कैसा हिंसक वृत्ति का व्यक्ति है!

किसी को हराने में हिंसा है। किसी को हराने में घृणा है। किसी को हराने की चेष्टा ही विकृत मन का सबूत है, बीमार मन का सबूत है।

लेकिन हम जो जीत जाता है उसका आदर करते हैं। जो हार जाता है उसे उपेक्षित करते हैं। क्यों? इसलिए कि हम भी भीतर जीतने को उत्सुक हैं और हम भी उसके समर्थक हैं जो जीत गए हैं, क्योंकि हम भी जीतना चाहते हैं। हमारे मन में भी वही रस काम कर रहा है कि हम भी जीतें। हम भी दूसरों की छाती पर बैठ जाएं, यह रस हमारे मन में काम कर रहा है। इसलिए जो किसी की छाती पर बैठ जाता है उसे हम फूल पहनाते हैं, जो नीचे जमीन पर गिर पड़ता है उसे हम भूल जाते हैं। उसकी कीमत नहीं है। यह जरूर गलत है, वह बुनियादी रूप से गलत है।

और स्मरण रखें महत्वाकांक्षा क्यों है हमारे भीतर? कौन सा कारण है कि हम इतने पागल होकर दौड़ रहे हैं? कारण है! जितनी जिस मनुष्य के भीतर हीनता होती है, उसके भीतर उतनी ही महत्वाकांक्षा पैदा हो जाती है। जितनी हीनता होती है, जितनी इनफिरिआरिटी अनुभव होती है, जितना भीतर लगेगा कि मैं कुछ भी नहीं हूं उतनी ही कठिनाई, उतनी महत्वाकांक्षा पैदा हो जाएगी। क्यों? महत्वाकांक्षा के द्वारा, वह अपनी आंखों में और दुनिया की आंखों में वह सिद्ध करना चाहता है कि भूल में मत रहना कि मैं हीन आदमी हूं।

एक छोटी सी घटना आपको कहूं, उससे समझ में आपको आए। तैमूरलंग का नाम आपने सुना होगा। एक राज्य को उसने जीत लिया। उस राज्य का जो बादशाह था बैजल, उसने उसको बंदी बना लिया। फिर तैमूर के खेमे में बैजल को हथकड़ियां पहना कर लाया गया। जब बैजल आकर खड़ा हुआ, हारा हुआ बादशाह, तैमूर अपने तख्त पर बैठा था, उसके दरबारी बैठे थे, उसके सैनिक-सिपाही खड़े थे। तैमूर बैजल को देख कर हंसने लगा। स्वाभाविक है कि बैजल को गुस्सा आ जाए। हार गया तो भी क्या, आखिर तो बादशाह था! उसने भी गरूर से सिर उठा कर कहा कि तैमूर, नासमझी मत करो। जो दूसरों की पराजय पर हंसता है, एक दिन उसे फिर अपनी पराजय पर भी आंसू गिराने पड़ते हैं। लेकिन तैमूर ने कहाः नहीं, इसलिए नहीं हंसता हूं। इतना नासमझ नहीं कि इस छोटी सी जीत पर मैं हंसूं। हंसता मैं किसी और बात पर हूं। हंसता मैं इसलिए हूं कि मैं हूं लंगड़ा--तैमूर लंगड़ा था और बैजल काना था--उसने कहा, हंसता मैं इसलिए हूं कि मैं हूं लंगड़ा और तुम हो काने। और यह भगवान भी कैसा है, लंगड़े काने को बादशाहतें देता है।

अगर मैं उसकी जगह मौजूद होता तो मैं तैमूर को कहता कि लंगड़ों और कानों के सिवाय भगवान से बादशाहत कोई मांगता ही नहीं। कोई स्वस्थ व्यक्ति बादशाह नहीं होना चाहेगा। कोई स्वस्थ व्यक्ति राजनीतिज्ञ नहीं होना चाहेगा। कोई स्वस्थ व्यक्ति किसी के ऊपर बैठने की आकांक्षा नहीं करता है। कोई स्वस्थ व्यक्ति किसी को पैरों में नहीं डालना चाहता। कोई स्वस्थ व्यक्ति किसी का मालिक नहीं होना चाहता। यह हमारे भीतर जो रुग्ण, बीमार, हीन आदमी बैठा हुआ है, उसकी दौड़ है।

लंगड़े और काने--हीन चित्त की जो हमारी स्थितियां है, हमारे भीतर जो कमजोरियां हैं, उनको छिपाने के लिए हम दौड़ते हैं, उनको छिपाने के लिए हम दौड़ करते हैं और हम सिद्ध कर देना चाहते हैं कि गलत है दुनिया। हम ठीक हैं, हम उचित हैं। हमने यह करके दिखला दिया। हम दूसरों को अपने सामने यह स्थापित कर लेना चाहते हैं कि हम हीन नहीं हैं। यह हीन मन की दौड़ है।

महत्वाकांक्षा पर आधारित शिक्षा मूलतः हिंसा पर आधारित शिक्षा है। वह व्यक्तित्व की गरिमा नहीं है उसमें, व्यक्तित्व की हीनता है। दुनिया में हरेक व्यक्ति को यह भय होता है कि कहीं मैं ‘नो-बडी’ न हो जाऊं, कहीं ‘ना-कुछ’ न हो जाऊं! मुझे कुछ न कुछ होना चाहिए--मेरा नाम होना चाहिए। मेरा पद होना चाहिए, मेरी प्रतिष्ठा होनी चाहिए, मेरा मकान होना चाहिए। मुझे कुछ होना चाहिए।

यह पागलपन कौन पैदा करता है? यह हमारी शिक्षा पैदा करती है। उचित है वह शिक्षा, जो प्रत्येक व्यक्ति को यह कह सके कि तुम जो हो वह काफी हो, पर्याप्त हो। तुम जो हो वह काफी हो और पर्याप्त हो। तुम्हें कुछ और होने की आवश्यकता नहीं है। तुम जो हो वह पर्याप्त है। और अपनी पूरी संभावनाओं को खोलो और आनंद को अनुभव करो। तुम किसी के साथ दौड़ में मत पड़ो। किसी के साथ दौड़ने का कोई कारण नहीं है। कोई भी कारण नहीं है! अगर शिक्षा प्रत्येक व्यक्ति को इस बोध को करा सके कि वह जो है, पर्याप्त है और उस पर्याप्त होने के आनंद को अनुभव करा सके--जो उसके पास है, उसके पूरे विकास की सुविधाएं जुटा सके--महत्वाकांक्षा की नहीं, विकास की; प्रतियोगिता की नहीं, प्रेम की; दूसरों के साथ संघर्ष की नहीं, वरन स्वयं के आत्म-जागरण की; और चैतन्य की अगर आयोजना कर सके तो शिक्षा सारे जगत में एक मूलभूत क्रांति को लाने में समर्थ हो सकती है। और जब तक शिक्षा ऐसी नहीं होगी तब तक शिक्षा मनुष्य के हित में नहीं है, वरन मूलतः वह मनुष्य के अहित में है, मनुष्य को विषाक्त करती है।

जो हमारे पास है और आपके पास, कौन सी कमी है? प्रत्येक व्यक्ति के पास कौन सी कमी है? अगर वह महत्वाकांक्षा से न भर जाए तो दुनिया में कोई भी कमी नहीं है। अगर वह महत्वाकांक्षा के पागलपन से रुग्ण न हो जाए तो उसके पास बहुत है, लेकिन वह दिखाई नहीं पड़ सकता। वह दिखाई कैसे पड़ेगा? हमें तो वह दिखाई पड़ता है जो दूसरों के पास है। जो आदमी महत्वाकांक्षी है उसे सदा दूसरों के पास है, वही दिखाई पड़ता है। जो उसके पास है, वह नहीं दिखाई पड़ता है। और मजा यह है, जो दूसरों के पास है वह उसे दिखाई पड़ता है, अगर कल उसे मिल जाए तो उसे दिखाई पड़ना बंद हो जाएगा। उसे फिर वह दिखाई पड़ने लगेगा जो दूसरों के पास है। आप विचार करें, खुद देखें--क्या यह सच नहीं है? आपके पास दो आंखें हैं, हाथ हैं, पैर हैं, श्वास चलती है, शरीर है, बड़ी संपदा है--इस बड़ी संपदा से बहुत कुछ पैदा हो सकता है।

एक बादशाह हुआ। वह बड़ा बेचैन था, बहुत परेशान था। आत्महत्या का उसने विचार किया और घोड़े पर बैठा और जंगल की तरफ गया। वहां उसने एक गड़रिए को भेड़ चराते, एक नौजवान को बांसुरी बजाते देखा। उसके स्वर में कुछ ऐसा जादू था कि उसने घोड़े को रोक लिया और उस युवक से पूछा कि तुम इतनी मस्ती से गीत गा रहे हो, जैसे तुम्हें कोई बादशाहत मिल गई हो। उस युवक ने कहाः भगवान से दुआ करें मेरे लिए कि और कोई भी--चाहे मैंने कोई भी अपराध किया हो, कितने ही पाप किए हों, भगवान से दुआ करें मेरे लिए कि कभी कोई बादशाहत मुझे न दे दे! बादशाह ने पूछाः तू बड़ा पागल मालूम होता है। आखिर तुझे बादशाहत से क्या घबड़ाहट है? उसने कहाः जब तक बादशाहत नहीं होती है, तभी तक आदमी बादशाह होता है और जब बादशाहत आ जाती है, तभी गुलाम हो जाता है।

आज तक दुनिया में किसी ने किसी बादशाह को बादशाह नहीं देखा। हालांकि बहुत से नंगे लोग देखे हैं दुनिया ने जो बादशाह थे। और जिनकी खुशी का कोई ठिकाना न था। जिनके आनंद की कोई सीमा न थी और जिनके अंदर ऐसा संगीत पैदा हुआ कि हजारों साल बीत जाते हैं, वह संगीत फिर भी सुना जाता है। दुनिया में किसी बादशाह के भीतर से कोई संगीत और आनंद उत्पन्न होते नहीं देखा। उसके कपड़े चमकते हैं, उसकी आत्मा बिलकुल ही जंग खाई हुई होती है। उसका ताज चमकता है, उसकी खोपड़ी के भीतर कोई चमक नहीं होती--कभी नहीं होती, कभी हो नहीं सकती। क्योंकि उसका आग्रह बताता है कि नहीं हो सकती। अगर उसके भीतर चमक होती मस्तिष्क में तो सोना सिर पर रखने का पागलपन उस पर सवार नहीं हो सकता था। जिसके मस्तिष्क में सोना होता है वह सोने के मुकुट पहनने को उत्सुक नहीं रह जाता। कौन पागल पत्थर को ढोएगा? लेकिन जिसके भीतर स्वर्ण नहीं होता, रद्दी सामान भरा होता है वह फिर सोने का मुकुट उस रद्दी सामान को ढांक देता है, सोना पहनने को उत्सुक हो जाता है।

उस युवक ने कहाः क्षमा करें, और भगवान से दुआ करें कि कभी मुझे बादशाह न बनाए। वह बादशाह और भी हैरान हुआ। उसने कहाः मैं देखता हूं कि तुम्हारे पास फटे कपड़े हैं, काम तुम्हारा इन भेड़ों को चराना है। फिर तुम्हारी खुशी का राज क्या है? उसने कहाः खुशी का राज तो इससे कोई संबंध नहीं रखता कि आपके पास क्या है? जो आपके पास है उसका आप कैसे उपयोग करते हैं, खुशी का राज तो इससे संबंध रखता है। आपके पास क्या है, इससे खुशी का कोई संबंध नहीं; जो आपके पास है उसका आप कैसे उपयोग करते हैं, खुशी का तो इससे संबंध है!

उसने कहाः मेरे पास आंखें हैं, मैं प्रकृति के सौंदर्य को देखता हूं और आनंदित हो जाता हूं। और मेरे पास ये भेड़ें हैं, इनको प्रेम करता हूं और मेरा हृदय आनंद से भर जाता है। और मेरे पास कौन सी कमी है? मेरे पास स्वस्थ हाथ पैर हैं और मैं दो रोटी कमा लेता हूं। और मैं दिन रात...चांद तारे हैं, जंगल हैं, पहाड़ हैं--मेरे पास कौन सी कमी है। हां, एक ही बात की मेरे पास कमी है जो बादशाहों के पास होती है। मेरे पास चिंताएं नहीं हैं। मैं रात गहरी नींद में सो जाता हूं।

उस बादशाह ने कहाः जा, तू ठीक कहता है। अपने गांव में भी लोगों से जाकर कह देना कि अचानक इस देश के बादशाह से मेरा मिलना हो गया और उसने भी इस बात की गवाही दी है कि जो यह युवक कहता है, ठीक कहता है। क्योंकि मैं आत्महत्या करने इस जंगल में आया हूं, मैं इस देश का बादशाह हूं। और भगवान करे कि तुझे कभी बादशाहत न दे।

और भगवान करे, मैं आपसे कहता हूं, दुनिया में कभी किसी आदमी को बादशाहत पाने का खयाल ही पैदा न हो। जिसको पैदा हो जाता है, वह बीमार हो जाता है, रुग्ण हो जाता है। उसका जीवन नष्ट हो जाता है। लेकिन हम सब बादशाहत की दौड़ में पड़े हुए हैं। इससे फर्क नहीं पड़ता कि आप क्या होना चाहते है। जब तक आप कुछ भी होने की दौड़ में हैं तब तक आप बादशाह होने की दौड़ में हैं। छोटे-मोटे होना चाहते हैं, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। बुनियादी बात है उसे पहचानना, उसमें आनंदित होना। उसकी जो संभावना है, उसे प्रेम से विकसित करना। तो जीवन बहुत-बहुत खुशी से भर सकता है। प्रत्येक आदमी का जीवन खुशी से भर सकता है। जैसा उस गड़रिए ने कहा--जो हमारे पास है, उसके उपयोग पर निर्भर करता है।

एक और छोटी कहानी कहूं। जापान में दो फकीर थे। सांझ अपने झोपड़े पर लौटते थे। वर्षा के दिन थे, अभी वर्षा आई-आई थी। आकर उन्होंने देखा, उनके झोपड़े का आधा हिस्सा हवा उड़ा कर ले गई है। एक तो फौरन भगवान के प्रति क्रोध से भर गया और उसने कहाः यह क्या हुआ? अब क्या होगा? वर्षा आ गई, वर्षा सिर पर है, आकाश में बादल मंडराते हैं और हम फकीरों का झोपड़ा हवाएं उड़ा कर ले गईं। आधा झोपड़ा नष्ट हो गया। अब हम कैसे रहेंगे, क्या करेंगे? और उसने कहाः इन्हीं क्षणों में तो भगवान पर शक आ जाता है कि यह है भी या नहीं! पापियों के बड़े-बड़े महल खड़े हैं, उनको उड़ाने का खयाल नहीं आता, गरीबों का झोपड़ा था, उसको उड़ा कर ले गए।

लेकिन दूसरा फकीर...यह पहला फकीर हैरान हुआ--दूसरा फकीर हाथ जोड़े आकाश की तरफ आंखें बंद किए खड़ा है और भगवान से कह रहा है कि तू धन्य है, तेरी कृपा धन्य है। आंधियों का क्या भरोसा था, पूरा झोपड़ा भी उड़ा कर ले जा सकती थीं। तूने तो आधा बचा दिया। आंधियों का कोई भरोसा है? अंधी होती हैं आंधियां, वह तो पूरा उड़ा कर ले जा सकती थीं, लेकिन तूने आधा बचा दिया। हम फकीरों की तुझे इतनी स्मृति है। हम कितनी कृतज्ञता अनुभव करते हैं।

और रात उसने एक गीत लिखा। रात उसने एक गीत लिखा, कि आज तक हमें पता नहीं था इस आनंद का, जो आधे छप्पर वाले लोगों को मिलता है। आधे छप्पर में हम सोए थे, आधे छप्पर में चांद भी था, वह भी दिखाई पड़ता था। आधा खुला हुआ छप्पर, आधे छप्पर में हम सोए हैं। रात जब भी आंख खुली तो बाहर देखा कि ?