सीरवी समाज - ब्लॉग

तलाक बुरा नहीं है, उसकी प्रकिया बुरी है -
Posted By : Posted By seervi on 31 Jul 2019, 06:12:32

जब पति-पत्नी मानसिक रूप से एक दूसरे से घृणा करने लगे, तो वे एक छत के नीचे कब तक और कैसे रह सकते हैं? तलाक बुरा नहीं है, उसकी प्रकिया बुरी है, उसके आगे पीछे का समय असहनीय होता है। फिर लंबी प्रकिया के बाद दोनों परिवार टूट जाते हैं, एक दूसरे को नीचा दिखाने के चक्कर में। इस कहानी के माध्यम से तलाक की प्रकिया को आसान बनाने की प्रयास किया गया है। किसी ने ठीक ही कहा है –

“खुशी बाँटने के लिए हजारों लोग आपको मिल जाएंगे, लेकिन दुःख में आप के साथ आसूँ बहाने वाले शायद ही मिल पायें।”

दोस्तों प्रतिदिन हम आप ज्योहीं अखबार के पन्ने पलटते हैं पाते हैं अखबार का दो से तीन पेज घरेलू हिंसा के खबरों से पटा रहता है, कहीं पति ने पत्नी का क़त्ल किया, कहीं पत्नी ने पति का। कहीं दोनों परिवार एक दूसरे पर केस डाल दिया, तो कहीं पत्नीं अपने बच्चों समेत ट्रेन से कट गई। ज्यादातर मामले पति पत्नी के संबंधों से जुड़ा रहता है, चाहे कारण दहेज हो या अन्य। टीवी न्यूज चैनल भी इसी तरह की ख़बरें दिखाते रहते हैं। आप समझ लीजिए ये घटनाएं अचानक नहीं होती, इसकी पृष्ठभूमि कई महीने या साल पहले लिखी गयी होती हैं।

दूसरी बात यह भी है शादी करने से पहले दोनों परिवारों ने इस तरह की घटनाओं की कल्पना तक नहीं की हुई होती हैं, फिर भी आज इस तरह की घटनाएँ रोज घट रही हैं। मुझे लगता है इन सब घटनाओं के पीछे पति, पत्नी और इनके परिवार का ‘अहं’ काम करता है, साथ ही आपसी बातचीत की कमी के कारण और समस्या को कोई समस्या न समझने के कारण दोनों पक्ष यही वहम में रहते हैं कि समस्या अपने आप सुलझ जायेगी जबकि ऐसा कभी नहीं होता। और धीरे धीरे समस्या इतना विकराल हो जाती है कि परिवार तो टूटता ही है धन-जन की भी क्षति होती है हालांकि दोनों परिवार का मकसद यह कतई नहीं रहता है। फिर भी यह हकीकत है।

आज परिवार में जो बिखराव आ रहा है उसके लिए जिम्मेवार है एकाकी परिवार, बड़े बुजुर्गों का आदर सत्कार की कमी, मानसिक तनाव और कहीं पर दहेज। आज की कुछ महिलाएं या यूँ कहें बहुएँ बिना कर्तव्य किए अधिकार की बात करती हैं जबकि कुछ पुरुष बिना कोई गलती के सिर्फ अपनी सत्ता मनवाने के लिए महिलाओं पर ज्यादितियाँ करता है, तो कुछ महिलाएं हमारे सदियों पुरानी समाज के पितृसत्तात्मक पद्धति को चुनौती देती हुई अपने अहंकार के कारण पति का महत्व ही भूल जाती हैं। फलतः वे अपनी परिवार के विखराव को नहीं रोक पातीं, समझ में जब आता है तब-तक बहुत देर हो चुकी होती है, जबकि दूसरी तरफ जिसके पति शराबी और जुआरी है, वह महिला अपने माँ-बाप को भी अपनी परेशानियां नहीं बता पाती।

इस कहानी के माध्यम से उन लोगों को रास्ता दिखाने का काम किया गया है जिनके नाम अखबार में आने वाले ही हैं। उपरोक्त कारणों से, जिनके परिवार में बेटे-बहू, बेटी-दामाद ऐसी परेशानियाँ झेल रहे हैं, जिनकी लड़की सालों से मायके में पति को छोड़कर बिना तलाक की रह रही है, न वे लड़की के ससुराल वाले से बात करते हैं और न ही ‘तलाक’ के लिए कोर्ट में अर्जी नहीं डालते हैं लंबे समय तक केस में उलझने के डर से और समाज में बदनामी के डर से। इससे दोनों परिवार परेशान रहते हैं, लड़की-लड़का कानूनन दूसरी शादी नहीं कर सकते, लड़की आजीवन पति द्वारा “भरण-पोषण भत्ता” से महरूम रह जाती है, पूरी तरह पिता पर आश्रित हो जाती है। यदि दुर्घटनावश पिता की मृत्यु हो जाय, तो उस लड़की और उसके बच्चों पर क्या बीतेगी, अकल्पनीय है। कभी-कभी यह भी सुनने को मिलता है कि लड़की के माता-पिता भी, खासकर जिनके एक ही सन्तान होती है, अपने लड़की को अपने पास रखने के लोभ में अपनी बात मनवाने के लिए उसके पति से झगड़ा करवाने में अप्रत्यक्ष रूप से सहयोग करते हैं, बिना इसके परिणाम को सोचे।

यह एक संयुक्त परिवार की कहानी है जिसका बड़ा लड़का, सुबोध जो एक सरकारी नौकरी में है, अपने पूरे परिवार को साथ ले चलना चाहता है हालाँकि पिता के पेंशनर होने के कारण इसके पैसे की कम ही जरुरत पड़ती है, फिर जब कभी जरुरत होती है, पूरा करने की कोशिश करता है, इसके छोटे भाई-बहन पढाई कर रहे हैं, इसकी पत्नी, गीता को लगता है कि यह अपना सारा पैसा घर पर ही दे देता है, उसे तथा उसके बच्चों को कुछ नहीं मिलता है, इसी बातों को लेकर अक्सर घर में झगड़ा होने लगा। इनके झगड़े से दोनों परिवार परेशान तो रहते है लेकिन किसी ने समस्या को सुलझाने के किए कोई कदम नही उठाया। धीरे-धीरे पति पत्नी के सम्बन्ध और खराब होते गये। हालाँकि दोनों एक छत के नीचे रह रहे थे, बच्चो के कारण। अनेक बार दोनों के बीच मार-पीट की नौबत भी आ जाती है, दोनों एक दूसरे को तलाक और आत्म-हत्या की धमकी देते हैं, इसी तरह पति-पत्नी में आरंभिक बहस, कब लगातार तकरार और धमकी में बदल गयी, दोनों परिवारों में से किसी को नही पता चला, या यूँ कहें कि किसी ने जानने की कोशिश नहीं की। इस बीच दोनों में दाम्पत्य सम्बन्ध भी खत्म हो गया, दोनों पति-पत्नी अपनी जवानी का महत्वपूर्ण समय एक दुसरे से झगड़े में बर्बाद कर दिया। अंततः सुबोध अपनी पत्नी को तलाक देने के विचार से एक वकील से मिला, किन्तु ज्यादा समय तथा दोनों परिवार के केस में उलझने के डर से तलाक लेने का एक अलग तरीका अपनाया। गीता के भाई राजेश को विश्वास में लेकर दोनों परिवार की मीटिंग बुलाई गयी। दोनों परिवार द्वारा एक एक वकील हायर किया गया, अपने परिवारों में से ही एक जज चुना गया, और उपलब्ध कानून के आधार पर बच्चों तथा गीता के लिए उचित मुआवजा और “भरण-पोषण खर्च” तय करने के बाद तलाक को सामाजिक मान्यता प्रदान किया गया। फिर “फैमिली कोर्ट” द्वारा क़ानूनी तलाक का रूप प्रदान किया गया। इस प्रकार समय और पैसे की बर्बादी भी नहीं हुई, और बच्चे को नाना-नानी, दादा-दादी सभी का प्यार मिलता है, सिर्फ दुःख है कि उसके मम्मी पापा एक साथ नहीं रहते। यदि तलाक सिर्फ कोर्ट द्वारा होता तो यह माहौल बच्चों को कभी नहीं मिलता। इस कहानी में हिंदू धर्म में तलाक से संबंधित विभिन्न क़ानूनी धाराओं का भी वर्णन किया गया है।