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मृत्यु भोज-गंगाप्रसादी एक अभिशाप, कुरीति, बुरार्इ एवं सामाजिक महाबिमारी-गोपारामजी पंवार
Posted By : Posted By कानाराम परिहार कालापीपल on 16 Mar 2013, 18:26:34
मृत्यु भोज-गंगाप्रसादी एक अभिशाप, कुरीति, बुरार्इ एवं सामाजिक महाबिमारी मृत्युभोज एक अभिशाप है। न जाने कब किस समय किस ने मृत्युभोज की परम्परा चलार्इ जिसे अनजान व अज्ञानी लोगों ने आंख मूंद कर इसे स्वीकार कर लिया। मनमौजी लोगों ने मृत्यु पर मौजमस्ती का मार्ग अपना लिया। बडे ही खेद की बात है कि जो प्रिय जीव, हमारे परिवार का प्रेमी सदस्य, सदा के लिए, हमसे बिछुड कर चला गया, जो कभी भी इस रूप में वापस नहीं आना है, यह समय सर्वाधिक दु:ख, शोक की घडी का एवं चिंता का होता है। इस अवसर पर घी, शक्कर का चूरमा, हलवा व तरह-तरह के मिष्ठान खाना किसी भी दृषिट से क्या मानवीय आचरण कहा जा सकता है ? नही, कभी नही मुझे आश्चर्य होता है, लोग विचार क्यों नही करते ? धर्म के जानकारों से प्रश्न क्यों नही करते ? गीता, रामायण, महाभारत एवं वेदों का अध्ययन क्यो नहीं करते ? ज्ञानियों से जिज्ञासा प्रकट क्यों नही करते ? कानून के जानकारों एवं सरकार से सलाह क्यों नही लेते ? धर्मगुरू श्रीमान दीवान साहब ने अपनी शब्दवाणी में स्पष्ट कहा है जो कुछ कीजे मरणे पहले इसी तरह श्रृति ने कहा जीव तो वाक्य करणात अर्थात जो कुछ करना है, जो भी करणीय है, करने लायक है, करना संभव है, किया जा सकता है, (इसमें सब कुछ आ गया है) वह अपने (मृतक के) जीवन काल में कर लेना चाहिए। कर्म जीव के जीवन काल में ही होते है मरने के बाद नहीं। सामान्यत: जीव से इस जीवन में पाप और पुण्य दोनेां होते है। पुण्य का फल है, स्वर्ग, पाप का फल है नरक। पुण्यात्मा मनुष्ययोनि अथवा देवयोनि को प्राप्त करते है। पापात्मा पशु-पक्षी, कीट-पतंग आदि तिर्यक एवं अन्य योनियां प्राप्त करते है। शास्त्रों में हमारी श्रद्धा क्यों नही है ? अगर श्रद्धा है तो हमारे कर्म शास्त्रोक्त क्यों नहीं है ? गीता के 17वे अध्याय के श्लोक 8, 9 व 10 में सातिवक, राजस व तामस आहार का वर्णन आया है। सातिवक मनुष्य भोजन में प्रवृत होता है जो पहले उसके परिणाम पर विचार करता है, राजस मनुष्य राग के कारण सर्वप्रथम भोजन को ही देखता है, उस के परिणाम पर विचार करता ही नहीं, तामस मनुष्य मूढता के कारण न भोजन पर न उसके परिणाम पर विचार करता है, वो तो केवल खाने में रूचि रखता है। हमारे जीवन में शुद्ध आहार का बडा भारी महत्व है, आहार शुद्धौ सत्व शुद्धौ धु्रव स्मृति। अपवित्रता दो प्रकार की होती है- जनना शौच व मरणा शौच। एक होता है सूतक, एक होता पातक। दोनों ही अवसरों पर जो भोजन घर में बनता है वह अपवित्र होता है। इसलिए कर्र्इ लोग सूतक की अवधि में सूतक वाले के घर भोजन नहीं करते, मगर बडे अफसोस की बात है कि घर में जब किसी की मृत्यु होती है, तो अंतिम संस्कार के पश्चात ही कर्इ क्षेत्रों में पकवान बनाकर खाया जाता है, जो हर दृषिट से अनुचित व अशोभनीय है। कुछ वर्षो पहले तक तो मृत्यु के अवसर पर मृतक परिवार के घर में प्रथम दो दिन चूल्हा भी नही जलता था और उस परिवार के रिश्तेदार व पडौसी लोग दलिया, राबडी इत्यादि साधारण भोजन लाकर खिलाते थे। गरूडपुराण में भी ऐसा ही उल्लेख है कि पातक अवधि में मृतक परिवार को भोजन बाहर से लाकर खिलाया जाए। शास्त्रों व सन्तों के उपदेशों में ऐसा उल्लेख आया है कि मृत्यु के अवसर पर मृतक के परिवार में जो मेहमानों के लिए भोजन बनाता है वह जाने वाले जीव के निमित बनता है उस जीव के पूर्व के असंख्य जन्मों के पाप उस अन्न में होते है। अत: उस अन्न को अपवित्र माना गया है। इस संदर्भ में यहां यह उल्लेखनीय है कि एक बार स्वामी श्री रामसुखदासजी महाराज से एक श्रोता ने प्रश्न किया कि - श्राद्ध का अन्न ग्रहण करना चाहिए या नहीं ? स्वामी जी ने कहा - घर के लोग श्राद्ध का अन्न खाए तो कोर्इ दोष नही क्योंकि मरने वाला अपना स्वजन है, परन्तु दूसरों को कभी भी नहीं खाना चाहिए अर्थात किसी को वहां अन्न व जल ग्रहण नहीं करना चाहिए। धार्मिक दृषिटकोण से मृत्यु भोज का परित्याग पश्चात भौतिक दृषिट से देखा जाए तो अनावश्यक एवं निराधार, अकारण ही मृतक परिवार को आर्थिक हानि होती है जिसे कतर्इ उचित नहीं कहा जा सकता। ऐसे आयोजनो में किसी प्रकार का नशा भी सेवन नही करना चाहिए। आदर्श परम्परा के दृषिटकोण से यदि इतिहास की ओर नजर दौडार्इ जाए तो भगवान श्रीरामजी के पिता अयोध्या के महाराजा श्री दशरथजी के देहान्त पर मृत्युभोज का आयोजन तो दूर रहा, पूरी अयोध्या में किसी के घर भोजन नहीं बना, सभी ने उपवास किया और श्रीरामजी जो मर्यादा पुरूषोतम राम कहलाते है, वे तो शोक प्रकट करने अयोध्या तक नही आए, बलिक उन्हें मृत्यु की सूचना मिलने पर उन्होनें कन्दमूल जैसे साधारण भोजन के साथ 12 दिन का शोक जंगल में मनाया। मेरे समाज के लोगों! जरा सोचो! हम इतने भूखे क्यों है ? हमारे प्रियजन, परिवारजन के वियोग की घड़ी में त्यौहार सम भोजन बनाकर उसकी मौत की क्यों मजाक उड़ा रहे है ? क्या हम में पशु-पक्षियों के बराबर भी संवेदनशीलता नहीं है ? कुतिया का बच्चा मर जाए तो कुतिया रोटी खाना छोड़ देगी। भैंस अथवा गाय का बछड़ा मर जाए तो घास खाना छोड देगी। हम अपने स्वजन की मृत्यु पर पकवान खाना कब छोड़ेगे ? इस पर हम सभी को गम्भीरता से विचार करने की आवश्यकता है। आधुनिक समय में भारत के पूर्व उपराष्ट्रपति एवं राजस्थान के पूर्व मुख्यमंत्री रहे माननीय श्री भैरोसिंह जी शेखावत एवं जयपुर की पूर्व महारानी माननीया गायत्री देवी जो करोड़ों की सम्पति पीछे छोड गर्इ, के देहावसान पर किसी प्रकार का भोज आयोजित नहीं हुआ तथा पुलिस विभाग के भूतपूर्व महानिदेशक श्री शान्तनुकुमार जी के आकसिमक निधन पर तीये की बैठक पर एक घण्टे का भजन एवं कीर्तन का आयोजन हुआ। किसी भी अतिथि ने भोजन नहीं किया। कानूनी दृषिटकोण से भी मृत्युभोज एक अपराध है। आज के वैज्ञानिक एवं भौतिकवादी जमाने की रफतार में हम अपराधी क्यों बनें ? अनावश्यक पुरानी परम्परा को पकडकर पिछडेपन का सबूत क्यों पेश करें ? धर्म गुरू श्रीमान दीवान साहब एवं श्री माताजी की शब्दावली एवं धार्मिक भावना की उपेक्षा क्यों करे ? मृत्युभोज बाबत हम सभी को समग्र रूप से इसके पक्ष और विपक्ष को अच्छी तरह से समझना होगा। यह एक गम्भीर बुरार्इ, कुरीति एवं सामाजिक महाबिमारी है। आत्मबल और मनोबल की सहायता से ही इस कुरीति पर विजय पा सकते है, हम सभी को इसका सामना करने के लिए दृढ संकल्प लेने की आवश्यकता है।