सीरवी समाज - मुख्य समाचार

सीरवी समाज के बारे मे राज राठौङ के विचार पढिए ओर गौर करिए अच्छा लगे तो सबको बताइये
Posted By : Posted By कानाराम परिहार on 03 Feb 2013, 17:07:13
जय श्री आईमाता जी की "सीरवी" एक पहचान ,संयम ,ईमानदार और कठोर परिश्रमी जनसमुदाय की । सालों से "सीरवी " खेती में कठोर परिश्रम कर अपनी काबिलियत का दमखम दिखा रहे थे , और आज इस तकनीकी युग में शिक्षा ,खेल ,व्यापार चिकित्सा और इस तरह के हर क्षेत्र में अपनी विशिष्ट छाप छोड़ रहे है , और अब राजनीति में भी । जिस तरह से युग समय में बदलाव आए है , उसी तरह मनुष्य ने अपने आप को समयानुसार ढाला है और ढालना भी चाहिए ,बशर्ते अपनी सभ्यता और संस्कृति को संग्यन में रखते हुए । खुशी है हमें ,आज हम समाज में देख रहे है ,समाज हर क्षेत्र में तरक्की की सीढ़िया चढ़ रहा है । पर चिंता भी हो रही है ,आजकल समाज में हो रही घटनाओ को जानकार ,देखकर , ना जाने क्यूँ लोग आपस में एक दूसरे से बैर ,द्वेष है । समाज में एक दूसरे से नफरत करने लगे है । समाज में छोटे बड़े के भाव भी पनप रहे है । आखिर क्यूँ ? एक सुखी सम्पन्न और परिश्रमी समाज में क्यूँ फूट पड़ रही है ? क्यूँ एक दूसरे का साथ देने में मुंह फेर रहे है ? क्यूँ सामाजिक जिम्मेदारियों से भाग रहे है ? क्यूँ कर्तव्यों से बच रहे है ? क्यूँ नेतृत्व करने से डरते है ? हम इन सब को काफी हल्के से ले रहे है , पर ये समस्याए बहुत गंभीर है । समाज की समृद्धि और एकता के लिए बहुत घातक हो सकती है ये समस्याए । समाज में बहुत सी रूढ़ि परंपराए है जैसे बाल विवाह , मान मनवार पर अफीम सेवन , मृत्यु भोज । ये सब रूढ़िवादी परम्पराएँ समाज के विकास के लिए बाधक है । समाज में किसी भी आयोजन पर "अमल -पानी " की परंपरा पहले से चलन में है , हाँ आज इन पर लगाम लगी पर अभी भी पूर्ण रूप से बंद नहीं हुई , नशा करना शरीर के लिए हानिकारक है ,ये जानते हुए भी लोग इनसे चिपके हुए है , कहते है यही उनका "प्रेम " भाव है । पर ये कैसा प्रेम भाव जो किसी के शरीर को आरोग्य बना दे । अगर हम उनके खिलाफ बोले तो जवाब मिलेगा - थाने कई ठा पड़े ,थे इज़े टाबर हो , बूढ़ा भाडेरा बेठा रे तो एड़ी बाता नि करणी ,थे थानो काम करो " मृत्यु भोज भी आज के दौर में वैसे ही चल रहा जैसे पहले चलता था , हाँ अब तो पहले से भी ज्यादा होता "दिखावे" के लिए कि माता -पिता के लिए दिल में कितना प्रेम है , जब माता पिता बुढ़ापे में अपने पुत्रो की जरूरत महसूस करते तब शायद कोई उनको पूछता तक नहीं और उनके जाने के बाद लोगो को भोज कराते । क्यूँ ये दिखावा ? आज के दौर में मंदिरो का निर्माण बड़े जोरों से है । लोग करोड़ो रुपये खर्च करते मंदिर निर्माण के लिए । सरहनीय बात है ,अटूट श्रद्धा है धर्म और भगवान के प्रति , और होनी भी चाहिए , जहा दवा काम ना करे वहाँ दुआ काम कर जाती है । पर देखने को मिलता है ,कई जगह ऐसा हुआ कि मंदिर बनाने के बाद कुछ महीने ,सालों बाद लोगो में ईष्या, द्वेष पनपने लगता और चंद लोग मिलकर अपना निजी मंदिर बनाने में जुट जाते है । इस तरह से समाज की एकता को खासा नुकसान हो रहा है । बेहिसाब मंदिरों से समाज का विकास नहीं हो सकता । जितनी श्रद्धा से मंदिर बनाए जाते उतनी श्रद्धा मानवता के लिए भी होनी चाहिए । "इंसान जब "मानवता " को अपना धर्म बना ले ,तो भगवान को अपने अंदर महसूस कर सकता है ,फिर उसे मंदिर जाने या बनाने की भी जरूरत नहीं " बड़ी बीज़ महोत्सव की जागरण में बोलिया लगाई जाती है , जिसमे लोग अपनी इच्छा अनुसार बोली लगते है । माध्यम वर्ग के लोग अपने हिसाब से बोली लगाते है और धनी परिवार अपनी हेसियत के मुताबिक माध्यम वर्ग की बोली से बढ़कर बोली लगा जाते है ,और तब उनमे भी घृणा पनप जाती है । जिससे समाज में लोग एक दूसरे से नफरत की नज़ारो से देखते है । इस तरह एक दूसरे से द्वेष ।बैर रख कर क्यूँ भक्ति का ढोंग किया जाता है ? अक्सर ऐसा होता है मंदिर में दर्शन हेतु जाने वाले दर्शनार्थी भीख माँगने वाले ग़रीब बच्चों के जमावड़े से पीछा छुड़ाते हैं, उन पर झल्लातें है और बिना उनकी मदद किए आगे बढ़ जाते हैं. भगवान की मूर्ति के समक्ष मेवा प्रसाद चढ़ाते है, उन्हें वस्त्र आभूषणों से सजाते हैं. दान पेटी में डालने के लिए उनकी जेब से १०,२० या ५०-१०० के नोट भी निकल जाते है. मानो ऐसा करने से ईश्वर उन्हें आशीर्वाद देंगें और उनके कष्टों को हर लेंगें. ये तो ऐसा हुआ जैसे ईश्वर के घर में भी बस पैसे की पूछ है तो फिर इंसान और ईश्वर में क्या अंतर रहा? मंदिरों के निर्माण कार्य में कई लोग करोड़ों का दान कर देते है ईश्वर को खुश करने और समाज में अपना मान सम्मान और रुतबा बढ़ाने के लिए. पर जब प्रश्न किसी ग़रीब का उठता है तो उस समय कुछ लोगों की मानसिकता उस ग़रीब की ग़रीबी से भी ज़्यादा ग़रीब बन जाती है. कई बार मेरे जहन में ये प्रश्न उठते है की मंदिरों और अन्य धार्मिक स्थलों के निर्माण कार्य पर करोड़ों रुपये बहाना धर्म है या फिर दर-दर भटकने वाले निराश्रितो के लिए आश्रय का कोई स्थल बनवाना धर्म है? भगवान की मूर्ति के सामने मावे- मेवा का प्रसाद चढ़ाना धर्म है या फिर किसी भूखे ग़रीब के लिए दो वक्त के खाने की व्यवस्था करना धर्म है? एक पत्थर की मूर्ति को नये नये आभूषण और वस्त्रों से सजाना धर्म है या फिर एक फटे कपड़ो से ढके अधनंगें तन को कपड़े पहनाना धर्म है? आख़िर क्या है सच्चा धर्म? ईश्वर को पाने के लिए आडम्बर की नहीं दिल की पवित्रता की जरुरत होती है. कई मामले ज्ञात में आए लड़कियों का किसी लड़के संग भाग जाना ,या लड़को का किसी लड़की संग भाग जाना । क्यूँ होता ऐसा ? समाज ने हर क्षेत्र में तरक्की के झंडे गाड़े है , पर असल में "लक्ष्य " क्या है हमारा ? सिर्फ और सिर्फ पैसा और प्रसिद्धि ? लगभग सब लोग कहेंगे नहीं ,क्यूंकि अंडम्बर और दिखवों की इतनी मिठास चढ़ा लिए कि अब सत्य का कड़वा घूंट कोई पी नहीं सकता । अक्सर देखते है लोग अपने परिवार को जरूरत के मुताबिक वक़्त नहीं दे रहे है ,सिर्फ व्यवसाय में ही व्यस्त रहते ,सिर्फ पैसा दिखता है आंखो के सामने , ऐसे में बच्चो को अपनत्व और प्यार की कमी खलने लगती और निरंतर वही हाल बना रहने से बच्चे ऐसी गलत हरकते कर जाते है , ये सत्य है ,आप इसे नकार नहीं सकते । सिर्फ माँ बाप को ही जिम्मेदार नहीं ठहरा रहा हूँ ,बच्चो की ऐसी गलतियों में टीवी पर प्रसारित कार्यक्रमों का भी बड़ा हाथ है , जरूरत है बच्चो में सही सभ्य के संस्कार देना । गलत सही के बारे में सम्झना । बच्चो से परिजन दोस्तना व्यवहार रखे ,ताकि बच्चे अपने मन की हर बात अपने परिजनो से साझा कर सके । मन की शांति पाने का सबसे बढ़िया तरीका है - कुछ चीजों को नजरअंदाज करना भी सीखें (जैसे सिर्फ पैसा कमाना ,सिर्फ प्रसिद्धि पाना ) किसी महान व्यक्ति ने कहा - सुख और शांति से रहना चाहते तो खुद को प्रसिद्ध होने से बचाए । अब बात है इन दिनो जोरों से हो रहे असंख्य संबंध विच्छेद (छोड़ा -मेला ) नित रोज खबर सुनने को मिलती कि फलां व्यक्ति की बेटी -बेटे का संबंध विच्छेद हो रहा है । ये नौबत क्यूँ आ गई ? (संबंध विच्छेद की ) क्यूँ नित रोज ऐसे वाकये हो रहे है ?(मेरा भी हुआ ,वजह जानने की कोशिश की पर नहीं बताई वजह ) बचपन में रिश्ते तय कर दिये जाते है (हालांकि यह रीत पूरनी है , पहले ऐसा नहीं हुआ करता था ) बाद में कोई बचपन में ही शादी कर देते ,या कोई बड़े होने पर करते । पर आजकल हम देखते है कि संबंधी को लड़के या लड़की का परिवार पसंद नहीं , लड़का या लड़की पसंद नहीं ,लड़का कम पढ़ा लिखा और लड़की ज्यादा पढ़ ली ,या लड़की कम पढ़ी लड़का ज्यादा पढ़ा हुआ , काम धंधा नहीं है लड़के के पास या लड़की के बदले लड़की नहीं है , इन वजहों से संबंध छूट रहे है । तो ये सब रिश्ते तय करते वक़्त क्यूँ नहीं सोचा ? रिश्ते तोड़ने की भी अजीब रश्मे, दंड प्रक्रिया जितना हो सके लड़की वालों से या लड़के वालों से पैसा वसूला जाये । कही भी , किसी भी कोण से आप लोगो को लगता इससे समाज में एकता बरकरार रहेगी ? एक दूसरे परिवार से नफरत करने लग जाते है लोग , अपमान की नज़ारो से देखते है । क्यूँ ऐसा ? इन सब में सीरवी महासभा का गठन हुआ । (पहले भी कई बार हो चुका ,पर नतीजे ,सुधार कुछ नज़र नहीं आए ) महासभा का गठन समाज में फैली कुरीतियों ,समाज उत्थान ,समाज की पहचान और विकास के लिए किया गया । समाज को एक अच्छे नेतृत्व की जरूरत थी । पीपी चौधरी जी को कमान सोपी गयी । बहुत ही अनुभवी व्यक्तित्व के धनी है ,तजुर्बा भी है । महासभा का दायरा बढ़ाने के लिए उत्तर से दक्षिण पूरब से पश्चिम तक सभाए हुई , सदस्य बनाए गए । हर क्षेत्र के नेतृत्व कर्ता नियुक्त किए गए । बहुत अच्छी पहल की गयी । धन्यवाद आप बड़े बुजुर्गो का । एक लेख छपा था "चेतबंदे " पत्रिका में "समाज में आपसी समस्याओं (जैसे कोई आपसी रंजिस ,झगड़ा ) हो तो पंचायत नहीं होनी चाहिए , कानूनी रूप से सुलझारा हो " मैं इसके समर्थन में हूँ , पर ऐसे मामलो में पहला स्तर समाज तक सुलझाने का होना चाहिए ,ताकि समाज में एकता बनी रहे , किसी के मन में द्वेष भाव न हो । अगर यहाँ बात ना सुलझे तो कानून की मदद ली जाए । यह मेरी निजी राय है । महासभा की लगभग सारी मीटिंगे हो चुकी है और सदस्य भी बनाए जा चुके है । अब मेरे अनुमान से समाज को सीधे राजनीति से जोड़ा जा रहा है , बहुत ही अच्छी बात है , पर सोचने वाली बात है समाज की नीव खोखली है और समाज के नेतृत्व कर्ता खोखली नीव पर आशियाना बना रहे है । क्या यह आशियाना लंबे समय तक सुरक्षित रहेगा ? समाज में एकता की कमी है , लोग एक दूसरे को नफरत भरी नज़ारो से देखते है ,समाज में छोटे बड़े का भेदभाव पनप चुका है । जरूरत है समाज में जमीनी स्तर से काम करने की ,बिखरे समाज को एक करने की । फसल तभी अच्छी हो सकती जब खेती अच्छे से की जाए । कई लोग गर्व से कहते है कि वे विस्तृत सोच वाले है पर एक कटु सत्य यह है कि इन ज्यादातर विस्तृत सोच वाले लोगों के दिमाग में विस्तृत सोच की संकीर्ण परिभाषा होती है यहाँ पर लिखी सब मेरी निजी राय है , किसी को मेरे लेख से ठेस पहुंची है तो माफी चाहूँगा । पर सत्य को स्वीकारे बगैर समाज में विकास संभव नहीं है । अंत में एक निवेदन आप सभी से -अपने नाम के साथ "सीरवी " अवश्य जोड़े ।