सीरवी समाज - मुख्य समाचार

बढ़ती जाएगी जनसंख्या और घटते जाएंगे परिवार
Posted By : Posted By Mangal Senacha on 24 Jul 2012, 07:35:52
एकल-व्यक्ति गृहस्थी या फिर कहें कि एकाकी जीवन भारत का भविष्य है। आत्मनिर्भर बन, अपने दम पर सब कुछ हासिल करने की भूख के साथ देश में "सिंगलटन्स" की एक अच्छी खासी जमात पैदा हो रही है, जिनके लिए एकल-व्यक्ति गृहस्थी एक आम बात हो चुकी है। परिवार विखंडित हुए हैं। पांच-छह जनों वाले परिवार से अलग, पहले न्यूक्लियर फैमिली के चलन ने जोर पकड़ा, जो अब सिंगलटन्स की अकेली गृहस्थी का रूप लेता जा रहा है। आदिकाल से ही मानव सभ्यता ने बंधुत्व और समगोत्रता के बंधन में बंधे हुए परिवारों के रूप में अपनी संरचना को विकसित किया। ज्यादा पुरातन में न भी जाएं तो महज कुछ साल पहले तक भी भारतीय परिवार वैसे ही हुआ करते थे जैसा कि करन जौहर और यश चोपड़ा की फिल्मों में दिखाए जाते रहे हैं, जहां कई पीढियों के एक दर्जन सदस्य, एक ही घर में साथ रहते थे। समय बदला, परिवार के हिस्से हुए, आकार छोटा हुआ, पर परिवार की परिभाषा बरकरार रही। कुछ समय पहले तक एकाकी जीवन ऎसे लोगों की मजबूरी थी, जिनका परिवार कुछ कारणों से उनके साथ न हो, लेकिन मौजूदा परिदृश्य में यह एक ट्रेंड है, जो तेजी से अपनाया जा रहा है। आत्मनिर्भर बनने की अंधी होड़ में युवा पीढ़ी परिवार की परिभाषा खत्म कर "सिंगल परसन हाउसहोल्ड" यानी एकल-व्यक्ति गृहस्थी के नए कॉन्सेप्ट" को धड़ल्ले से अंगीकार कर रही है। बदलाव से बदलेगा बाजार ब्रांड एक्सपर्ट हरीश बिजोर का मानना है कि सामाजिक ढांचे में हो रहे इस बदलाव की वजह से रियल एस्टेट, सर्विस सेक्टर और यहां तक कि कमोडिटी सेक्टर तक के बाजार की रूपरेखा बदल जाएगी, जो आने वाले आठ साल में नजर आएगी। स्टूडियो और सिंगल-रूम फ्लैट्स का प्रचलन बढ़ेगा। नतीजा यह कि सुरक्षा के लिहाज से जरूरी उपकरणों जैसे लेजर अलार्म बेल्स, दरवाजों पर वीडियो फोन्स, चोर-घंटी और पेपर स्प्रे आदि के ग्राहकों की संख्या बढ़ेगी। "सिंगल सव्र्स" यानी एक व्यक्ति के लिए पर्याप्त खाद्य सामग्रियों वाले पैक्ड, रेडी-टू मेक आइटम्स और टी-कॉफी बैग्स आदि के प्रति रूझान बढ़ेगा। टीवी कार्यक्रमों और विज्ञापनों में स्वयंभू महिलाओं को ज्यादा दिखाया जाएगा। आर्थिक सेवाओं और उत्पादों से जुड़े विज्ञापनों में पुरूष प्रभुता कम नजर आएगी। कॉस्मेटिक स्पा और सैलून्स ज्यादा खुलेंगे। निवेशक इकाई (पुरूषों की जगह महिलाएं) में आए बदलाव से आर्थिक निवेशों और जीवन बीमा संबंधी सेवाओं की रूपरेखा बदलेगी। 2020 तक सबसे ज्यादा एकल-व्यक्ति गृहस्थियों वाले देश विकसित अर्थव्यवस्था वाले देशों के मुकाबले भारत जैसे विकासशील देशों में वर्ष 2012 से 2020 के बीच एकल-व्यक्ति गृहस्थी का चलन ज्यादा तेजी से बढ़ेगा। विकसित देशों में जहां यह दर 9.5 प्रतिशत की रहेगी, भारत में बढ़ोतरी 22.6 प्रतिशत की दर से दर्ज की जाएगी। कारण तेजी से होता शहरीकरण है, जिसकी वजह से ज्यादा से ज्यादा युवा अकेले रहने का विकल्प चुनते नजर आएंगे। चौथे स्थान पर है भारत लंदन स्थित मार्केटिंग फर्म यूरोमॉनिटर के सर्वे में यह बात सामने आई है कि 2020 तक भारत में एकल-व्यक्ति गृहस्थी की संख्या 1.74 करोड़ होगी। इस होड़ में भारत से आगे सिर्फ तीन देश हैं। इस आंकड़े के आधार पर माना जा रहा है कि भारत जैसे देश के लिए जहां पारिवारिक मूल्यों का हमेशा से एक खास स्थान रहा है, यह एक बड़े सामाजिक और आर्थिक बदलाव का संकेत है। हालांकि भारत का सामाजिक ढांचा 60 और 70 के दशक से ही लगातार बदलाव की राह पर है, जहां से पारंपरिक संयुक्त परिवारों के अंत की शुरूआत होती है। एकाकी गृहस्थी में रहने का यह हालिया चलन, 1991 के आर्थिक उदारीकरण की देन माना जा रहा है। "हैपिली सिंगल्स" का पक्ष अ केले रहने के विकल्प को चुनने वाले हैपिली सिंगल्स के इसके पक्ष में अपने तर्क हैं। पहला तो यह कि वे स्वतंत्रता और आत्मनिर्भरता के लिए अकेले रहना चाहते हैं, ताकि उनके समय पर सिर्फ उनका नियंत्रण हो। आर्थिक आत्मनिर्भरता ने उन्हें निजता खरीदने का मौका भी दिया है। बकौल सिंगलटन्स, शादी नामक संस्था से जुड़ने का मतलब है अपने सामाजिक और निजी सरोकारों से समझौता करना। वहीं अब महिलाएं आर्थिक स्थिरता के लिए नहीं, बल्कि भावनात्मक सहयोग के लिए शादी को महत्व दे रही हैंं और उसे न पा पाने का संशय उन्हें अकेली गृहस्थ बसाने के लिए प्रेरित कर रहा है। एकाकी गृहस्थी का चलन आर्थिक सशक्तिकरण का द्योतक है। बहुतायत में करियर ऑप्शन्स के साथ खास तौर पर महिलाओं को ज्यादा आर्थिक स्वतंत्रता मिली है। बाजारवाद बढ़ा है, नतीजतन पारिवारिक ढांचे की बजाए भौतिकता पर उनकी निर्भरता बढ़ी है। देवांगशु दत्ता अर्थशास्त्री यह एक गंभीर सांस्कृतिक संक्रमणकाल है। भारत ने कॉस्मोपोलिटन संस्कृति को अपना लिया है और दूसरी ओर व्यक्तिगत सरोकारों को परंपरागत सामाजिक ढांचे से ऊपर माना जाने लगा है। अमित कुमार शर्मा समाजशास्त्री आज नौजवानों के पास कई विकल्प हैं, इसलिए विवाह नामक संस्था का आश्चर्यजनक रूप से पतन हो रहा है। किसी दूसरे के साथ सामंजस्य बिठाने या उनके लिए खुद में बदलाव लाने का महत्व भी खत्म होता जा रहा है। संजीता कुंडु नैदानिक मनोविज्ञानी, स्मिता सिंह साभार - पत्रिका