सीरवी समाज - ब्लॉग

*एक हो युवाओं और समाज के उद्धेश्य*
Posted By : Posted By seervi on 27 Nov 2019, 05:38:45

*एक हो युवाओं और समाज के उद्धेश्य*
युवा सीरवी समाज संक्रमण के दौर से गुजर रहा है l एक तरफ शिक्षित व् प्रशिक्षित युवाओं की संख्या में तेजी से इजाफा हो रहा है, वही दूसरी तरफ बेरोजगारी की दर भी बढती जा रही है, सम्पूर्ण भारत में बसे सीरवी समाज के युवाओं के साथ यह दशा और मनोदशा पाँव पसारती नजर आ रही है, सरकारी क्षेत्रो में नौकरियों की कमी, उद्योग धंधो की कमजोर होती माली हालत, टूटते परिवार, महंगे होते व्यापारिक उपक्रम, निजी नौकरियों की वेतन विसंगतिया, बदलते व्यापारिक हालात आदि बहुत से कारण है की आज सीरवी समाज का युवा बढती बेरोजगारी से निर्णय लेने की स्थिति से महरूम होता जा रहा है l जब से सूचना तकनीक क्रान्ति का उद्भव हुआ है, तब से आज समाज के हर युवा चाहे वह स्त्री हो चाहे पुरुष हो के हाथ में स्मार्ट फोन है, जिससे उसे देश दुनिया और अलग अलग प्रान्तों में बसे अपने जाती बंधुओ से परिचित कराने में मदद की है तथा विभिन्न तरीको से उस युवा के सपनों को नयी उड़ान दी है, एक ज़माना था जब युवा आदर्शवाद और रूमानी दुनिया से अपना सफ़र शुरू करते थे लेकिन आज का युवा बहुत जल्द खुद को परिपक्व महसूस करने लग गया है, इस त्वरित परिपक्वता के पीछे समय से पहले विकसित होने वाले उन सपनों का टूटना है आज का दूर हमारे समाज के युवाओं को सपने तो बहुत दिखाता है लेकिन व्यवहार में उन सपनो को पूरा करने के अवसर बहुत कम युवाओं के पास है, मसलन एक खबर आती है की समाज के किसी युवा को किसी कंपनी में लाखो- करोड़  रुपीये का पैकेज मिला है, व्यावसायिक डिग्री प्राप्त कर चुके या कर रहे युवा उसी तरह के एक जाब का सपना देखने लगते है, तमाम योग्यताओ के बावजूद वैसा जॉब सबको नहीं मिलता, वस्तुस्थिति तो यह है की अधिकतम युवाओं को कैसा भी रोजगार नहीं मिल पा रहा है, व्यापारिक क्षेत्र में देखे तो छोटे से छोटे व्यापार की शुरूआती लागत लाखो में चली गयी है, देश भर में जहा भी व्यापार करने लायक माकूल इंतजामात हो समाज का युवा तकरीबन बीस लाख से करोड़ रुपीये तक की लागत का  इंतजाम करने में असमर्थ हो रहा है, ऊपर से पढ़े लिखे युवा और भौतिक जीवन की सभी सुविधाओं से घिरे युवा के लिए व्यापार की कीमत इतनी बढ़ गयी है की उसकी अनुपलब्धता उसे एक तरह का बेरोजगार ही साबित किये जा रही है, मारवाड़ के तमाम गाँवों से युवा नौकरी की तलाश में बड़े शहरों में आ गए है, वर्षो से दुकानदारों के यहाँ मुनीम की नौकरी कर अपने व्यापार का सपना संजोये युवा, वर्षो से प्रतियोगी प्रतियोगिताओं की तयारी करता युवा, अब वापिस गाँव जाकर खेती करने या अन्य कोई काम करने की स्थिति में भी नहीं रहा l खेती करे भी तो क्यों. उन्हें मालुम है की बिखरते परिवारों की वजह से छोटी होती गयी कास्त और तमाम सरकारों की किसान विरोधी नीतियों के कारण महंगी होती खेती घाटे का पेशा बन चुकी है, पूर्व में पानी की कमी से सीरवी समाज के किसानो ने दिसावर में पलायन किया था, आज घाटे की खेती ने समाज के युवाओं को महंगी होती व्यापारिक गतिविधियों और घटते सरकारी नौकरियों के मापदंडो ने निराश कर रखा है, अधिकाँश युवाओं को अपनी योग्यता के मुकाबले काम भी नहीं मिल रहा है, बढती महंगाई और जाल की तरह फेलाते जा रहे भौतिक साधनों के उपयोग की जीवन शैली ने कमाई के आंकड़ो को खर्च के आंकड़ो के सामने बौना कर रखा है बेरोजगारी की इस दर ने विवाह की औसत आयु भी बढ़ा दी है, आज समाज का युवा सोचता है की जीवन में स्थायित्व आये तो शादी करे, शिक्षा ने इस पद्धति में पुरुष के साथ स्त्री को भी झोंक दिया है, बेरोजगारी के इस दौर में अगर स्त्री ने स्थायित्व पा लिया है तो उसे पुरुष भी स्थायित्व वाला चाहिए, ऐसे में स्त्री और पुरुष गाडी के दो पहिये के समान होते है की धारणा भी गलत साबित हो रही है, जिस युवा ने स्थायित्व नहीं पाया वह शादी के योग्य होकर भी समाज में योग्य नहीं है, बेरोजगारी के इस दौर में युवा खुद को अकेला महसूस कर रहा है, उसके जीवन का मनोवेग्यानिक अध्ययन करे तो पायेंगे की ज्यादातर युवा गहरी निराशा में जी रहे है, सोशल मीडिया पर वे लोगो से घिरे है लेकिन यह भीड़ भी आभाशी है, फेसबुक व्हट्स अप्प बंद करने पर भी अकेलापन और निराशा ही उसे घेरे रहती है, सोशल मीडिया युवाओं के मन में नायकत्व का भाव पैदा करता है, आभाशी दुनिया से परिवार और आस पड़ोस की असली दुनिया में आते ही वह नायकत्व विखंडित होकर एक भिन्न प्रकार की निराशा पैदा करता है, फलत: युवामन नायकत्व और हीनताबोध के बीच झूलता रहता है पूंजीवाद समाज की विशेषता है की यह व्यक्ति के अन्दर अपरिमित आवश्यकताए पैदा करता है, ऐसी वस्तुओ को उसके जीवन की अपरिहार्य जरुरत बताता है जिसके बिना भी काम चल सकता था, अपनी आकांक्षाये और जरूरते पूरी नहीं होने की स्थिति में युवा निराशा के दुआर में नशे और अप्राकृतिक असामाजिक संबंधो की और प्रवृत्त हो जाते है, और इसी प्रक्रिया में अपनी जरूरतों को पूरा करने के लिए उनके अन्दर आपराधिक प्रवृति पैदा होने लगती है, हीनता के बोझ से उपजी निराशा के दौर में कुछ युवाओं में आत्मघाती प्रवृति भी देखि गयी है युवाओं की इस मनोदशा के मूल कारण भौतिक है, जहा आधी से अधिक आबादी गरीबी रेखा के नीचे गुजर बसर कर रही है ऐसे समाज में इन संभावनाशील युवाओं से संवाद करना उनकी समस्याओं को संबोधित करने के नाम पर अथितियो के मान सम्मान नामक प्रतिभा सम्मान समरोह जैसे कार्यक्रमों की ओपचारिकता भरपूर देखि जा रही है,विगत कुछ वर्षो में मारवाड़ अंचल के सीरवी समाज के युवाओं ने सरकारी और निजी नौकरियों में अपनी योग्यता का प्रदर्शन कर मुकाम पाया है किन्तु यह संख्या बहुत ही ज्यादा कम है, अपेक्षाकृत इसके अधिकतम युवा सालो से अपना भविष्य दाव पर लगा कर प्रतियोगी परीक्षाओं के मकडजाल में उलझे हुए है, और इसी मकडजाल की वजह से स्थायित्व और जीवन में स्थिरता के सपने संजोये युवा चाहे वह स्त्री हो चाहे पुरुष समाज की विवाह परम्परा में अपनी उम्र बढ़ा बैठा है, ऊपर से सरकारी क्षेत्र और निजी क्षेत्र में नौकरियों में देश भर में हो रही कटौतिया  चिंताजनक है, हमारी सरकारे भले ही निजीकरण की राह पकड़ रही है इसलिए सरकारी सेवाओं का दायरा सिकुड़ता जा रहा है, आजाद भारत के निति निर्माताओं ने मिश्रित अर्थव्यवस्था को चुना, इसलिए सरकार की भी जिम्मेदारी है की वह सरकारी क्षेत्र को बचाए तथा निजी क्षेत्र में जहा जहा वेतन और अन्य सुविधाओं को बेहतर किये जाने की आवश्यकता है वहा वहा उचित दिशा में कदम उठाये, समाज को भी आवश्यकता है की समाज के जो पूंजीपति अपने व्यवसाय में सेकड़ो कामगारों को खपाने की ताकत रखते है उनमे समाज के अधिकतम योग्यताधारी युवाओं को रोजगार दे और उन्हें हर उस सुविधा के लिए पात्र रखे जिनसे उस परिवार को संबल मिले और वह समाज की मुख्यधारा में स्थायित्व पा सके lसाथ ही हम्हे समाज की युवा आबादी के शारिक्रिक और मानसिक स्वास्थ्य का भी ख्याल रखना होगा, देखने में आया है की बड़ी तादाद में युवा किसी न किसी शारीरिक बिमारी से ग्रसित है, करियर की चिंता के चलते शारीरिक स्वास्थ्य उनकी प्राथमिकता से कौसो दूर है, अधिकांशतया युवा घर से बाहर रह कर पढ़ाई कर रहे है या ट्रेनिंग ले रहे है, ऐसे में साफ़ सुथरा खाना भी नसीब नहीं होता, घर से बाहर रहने पर वे अपने सामाजिक धार्मिक सांस्कृतिक उत्सवो आयोजनों में भी कम ही हिस्सेदारी कर पाते है, उत्सव हमारे जीवन की निराशा अकेलेपन और एकरसता को पराजित करने के कारगर अवसर है स्त्री और पुरुष रिश्तो के बीच बढती जटिलता भी काफी युवाओं को गहरी निराशा में धकेल देती है, लड़के लडकिया घर से बाहर निकल गए, परिवार के नियंत्रण से काफी हद तक मुक्त हो गए है, लेकिन रिश्तो को लेकर इतने परिपक्व नहीं हुए है, देखने में आता है की संबंधो में नकार, संबंधो के टूटने आदि से अकफी युवा अवसाद में चले जाते है, पुरानी पीढ़ी और नयी पीढ़ी के बीच मूल्यों का आया अंतर भी समस्याओं को बढाने का ही काम करता है इन दशाओं में जी रहे युवा इस समाज का वर्तमान भी है और भविष्य भी है, उनके सवालों को तत्काल संबोधित करने की आवश्यकता है समाज उनकी ऊर्जा और काबिलियत का देश निर्माण में सदुपयोग सुनिश्चित करे, सस्ती शिक्षा स्वास्थ्य सुविधाए और समुचित रोजगार मुहेय्या कराने के लिए सिर्फ सरकारों पर निर्भर रहने की आवश्यकता नहीं यह सामाजिक धरातल से भी संभव है सभार प्रेरितं - गंगा सहाय मीना (एसोसियेट प्रोफ़ेसर, समाजशास्त्र)