सीरवी समाज - ब्लॉग

समाज का बंटवारा (कडवा सच) - प्रत्युतर - प्रस्तुति : सीरवी जितेन्द्र सिंह राठौड़
Posted By : Posted By seervi on 12 Aug 2019, 07:02:11

लेकिन ....
शाशन ऐसा नहीं सोचता .... चाहे वह बीजेपी का हो चाहे कांग्रेस का या लेफ्ट इत्यादि ...
शाशन में संतुलन को तरजीह दी जाती है, आपने अपने लेख में मुस्लिम शब्द का इस्तेमाल किया, सबका दिल जीत लिया, क्यूंकि वर्तमान में राष्ट्रवाद का तत्पार्य ही यही है, एक तरफ आप भारतीयता की बात कर रही है, दूसरी तरफ आपने धर्म में बाँट दिया ... खेर कोई बात नहीं ... आपने विचार प्रस्तुत किये यह बहुत अच्छी बात है ....
अमेरिका के मूल निवासी जिन्हें रेड इंडियन कहा जाता है, आज विलुप्ति की कगार पर है, अब्राहम लिंकन को वेम्पायेर हंटर कहा जाता रहा है, अमेरिका की शिक्षा पद्धति और समाजवाद प्रत्येक नागरिक चाहे वह स्त्री हो चाहे पुरुष हो सामान अधिकार देता है, अत्याधुनिक मशीनों से वो कार्य होते है जिन्हें समाज के निचले तबके के लोग मजदूरी के लिए करते है, और जो कार्य संभव नहीं हो पाते या जिनके लिए मजदूर (श्रमिक - कुशल अकुशल अर्धकुशल) उपलब्ध नहीं हो पाते उन कामो को आउटसोर्सिंग के द्वारा विकासशील देशो में सस्ते श्रम हेतु करने के लिए दिया जाया है, वहा की शिक्षा पद्धति नए आईडिया का निर्माण करने को तरजीह देती है इसलिए विगत 100 वर्षो में सबसे ज्यादा खोजे और तकनीक का विस्तार इन देशो में हुआ, वो तकनीक का इजाद करते है, तकनीक कानिर्माण मशीन से होता है, मशीन के पुर्जे आउटसोर्स होते है, और फिर वही तकनीक जब पुरानी हो जाती है तो विकासशील देशो को बेच दी जाती है ....
हम ..... अभी तक विवाह और परिवार के साथ समाज पर अटके है, शायद यह हमारी परंपरा भी है और हमारी सभ्यता भी .. हमने सदेव येही माना है की हमारी सभ्यता विश्व गुरु है .... और हम इसी के चलते मंगल गृह पर जाने की ख़ुशी भी जाहिर करते है, सवा सौ करोड़ की संख्या में हम बोद्धिक कौशल की बजाय रोजमर्रा के जीवन की जरूरतों को ज्यादा महत्व देते है, हम कहते है की जब तक हम शादी करते है तब तक एक मुसलमान तीन बच्चे पैदा कर देता है, शायद एक आदिवासी भी यही काम करता है लेकिन चूँकि उनकी तादाद इधर ज्यादा नहीं बढ़ी इसलिए उन्हें हमने अभी अपनी बहस का हिस्सा नहीं बनाया, हालांकि सवा सौ करोड़ में से यदि पाँव भर मुसलमान है तो आधे से अधिक दलित आदिवासी और निचले तबके के लोग भी है जो जाती धर्म में मेल तो खाते है लेकिन समाज व्यवस्था में मेल नहीं खाते, यहाँ तक की पानी पीने और पिलाने के भी रीती रिवाजो में पाबंदी के शिकार है, असल में .. हम्हे क्या चाहिए .. सिर्फ यह सोचने का विषय है ...
असल में हमने अपने समाज को बहुत सारे भागो में बाँट दिया, पढ़े लिखो का समाज, धनपतियो का समाज, मजदूरो का समाज, खेतिघर किसानो का समाज, पदाधिकारियों का समाज, छोटे दुकानदारों का समाज, बड़े व्यापारियों का समाज, आदि .... असल में देखा जाए तो हमने अपने बच्चो के विवाह के लिए भी इनमे भेदभाव करना शुरू कर दिया, और तो और सगे भाइयो में भी इसलिए भेदभाव हो गया है की वह या तो निकम्मा है, बेरोजगार है, खेती करता है, ढंग के कपडे नहीं पहनता, गरीब है, आदि आदि ...
अगर मेरी बात गलत हो तो अपने बच्चो के सम्बन्ध करने के लिए आपके पास आयी लिस्ट में से जब आप सेलेक्ट करो तो अपनी मानसिकता को तौल दे, फिर शायद आप यह महसूस कर सके की एक ही समाज में हमारे पास कितने कम आप्शन है  ...
खेर .. असल में अब हम सक्षमता की और जा रहे है, अर्थार्थ हमने जीवन स्तर को वर्तमान भविष्य समझ लिया है, हमारे सामजिक मायने बदल गए है, अब हम जब नहीं समझना चाहते है तब अपने उदाहरणों में सैम सामयिक कारण को जिम्मेदार बताने से नहीं हिचकिचाते, अब हम अपने रोजगार के विकल्प अपनी इच्छा से तय करने जो लग गए है, क्यूंकि अब हम बौद्धिक कौशल वाले हो गए है, जिन्हें ज्ञात है की वर्तमान शैली में जीवन जीने के लिए क्या चाहिए ... उस से इतर जो हमारे सामान सक्षमता की श्रेणी में नहीं आते असल में वो समाज का कचरा है ... जिस से समाज को और देश को नुक्सान है, असल में यदि इनकी संख्या बढ़ गयी तो तो हमारे सोर्सेज पर यह लोग कब्जा कर लेंगे .... हम उची जात वाले है, हम उची पायदान वाले है ....
हमारा वर्तमान हम्हे सिखा रहा है की ... हमारी व्यवस्था में हम अपने पोरानिक संस्कारों का नवीनीकरण अपनी शर्तो पर करेंगे, हम भारतीय तो बने रहेंगे लेकिन अपनी ही जात में अपने बच्चो की शादी अपनी बौद्धिक कुशलता का उपयोग कर के करेंगे, हम यह समझने लग गए है की हमारे बच्चे भी अब कुशलता में हम से आगे निकल रहे है, हम सिर्फ इसलिए उनके निर्णयों को मान रहे है क्यूंकि असुरक्षा की बहावना अब बच्चो में नहीं होकर हम में आ रही है, क्या पता बुढापे में हम्हे रोटी देगा के नहीं ...
हम्हे यह निर्णय लेना होगा की हम शादी कब करे या हिन्दुस्तान में कौन रहेगा .... बाकी निर्णय शाशन ले लेगा क्यूंकि उनका काम है हम्हे आउट सोर्स प्रदान करवाना, वैसे आउट सोर्स से याद आया की आजकल हमने ऐसे मेसेज खूब पढ़े है की विवाह के लिए लडकिय खरीदी जा रही है बेचीं जा रही है  या दूसरी जाती या दुसरे राज्य से लाई जा रही है, तो कुल मिलाकर हमने यह स्वीकार कर लिया है अब हम उस श्रेणी में जाना ज्यादा श्रेयस्कर समझ रहे है जिस श्रेणी में विकसित देशो के लोग हमसे बहुत पहले पहुच चुके है ....
शायद यह कहने में भी कोई अतिश्योक्ति नहीं की अब हम और हमारी आने वाली पीढ़ी उन देशो जगहों शहरो या तकनीको की और प्रस्थान करेंगे जहा जीवन स्तर इसलिए ऑटोमेटिक या मशीनी हो क्यूंकि हम्हे अपने शरीर की बजाय अपने बौद्धिक कौशल की क्षमता में इजाफे पर पूरा यकीन है, और हो सकता है की हमारे समाज में ऐसे लोग आज भी है और वे उस सुदूर छोर पर खड़े खड़े यह कह रहे हो की
देखो इन लोगो को अपनी संकीर्ण मानसिकता के साथ अपने बच्चो पर समाज थोप रहे है उन्हें खुल कर जीने ही नहीं दे रहे .. हमारी तरह क्यूंकि हमने तो अपने कुत्ते तक को अपने डबल बेड पर जगह दे रही है ... शायद अब इंसान की क़द्र जानवर से बदत्तर हो गयी है .. तभी तो में कहू की हमारे समाज में अंतिम व्यक्ति या गरीब व्यक्ति पर फोटो खीछु विज्ञापन का अहसान तो हो रहा है लेकिन उनके स्तर बढाने के नियम जैसे सिस्टम का सारा दारोमदार उनके बौद्धिक कौशल पर छोड़ दिया गया है की ... भाई .. जब हमारे लेवल में आ जाओ तब हमारी तरह तुम भी बोलना तब तक .. हमारी सामाजिकता की सेवा के तुम आश्रित हो ... आओ फोटो खिचवाये .. फेसबुक पर डालनी है