सीरवी समाज - ब्लॉग

मैं और मेरा समाज .. प्रस्तुति - चेतना राज (प्राध्यापक, राजनीती विज्ञान)
Posted By : Posted By Jitender Singh Bilara

जहा तक मेने पढ़ा है समाज की अवधारणा किताबो में लेखको ने बड़ी ही क्लिस्ठ भाषा में समझाई, एक आम मस्तिस्क इतनी कठिन भाषा को समझ कर वास्तविकता के धरातल को समझने में अपना जीवन व्यतीत नहीं करता, उसके लिए समाज एक समूह है, जहा उसके आस पास उसके अपने उसे जानने वाले या जान सकने वाले मनुष्यों का जमावड़ा हो l कई मायनों में जब मेने देखा की जिसे में समाज मानती हु उस समाज की व्यापाकता के न नियम होते है न निर्देश, मेरी जैसी कामकाजी महिला के लिए मेरा घर, परिवार, चौक चोराहे से होते हुए बस स्टैंड, बस और मेरा कामकाजी क्षेत्र मेरा समाज है l यह समाज के अलग अलग स्त्रोत है और इस में अभिनय करने वाले चेहरे भले ही अलग अलग हो किन्तु मानसिकता लगभग एक जैसी होती है, फिर किसी ने मुझे यह महसूस कराया की समाज को हम किसी दायरे में नहीं बाट सकते l यह धरती हमारा मानव समाज है, यह देश हमारा रास्ट्रीय समाज है, यह राज्य हमारा भोगोलिक समाज है, यह जिला हमारा प्रशाशनिक समाज है, यह नगर गाँव हमारा आश्रय समाज है, यह परिवार मेरी सुरक्षा का समाज है l इस सभी समाजो में अपने अस्तित्व को ढूंडते हुए मुझे अपने जीवन की तमाम उपलब्धियों पर ख़ुशी एवं मुश्किलों पर दुःख महसूस होता है, यह मेरा मानव जीवन है, यह मेरा समाज है ,...

कामकाजी महिला होने के नाते मुझे नित्य नए नए तरह के विचारों से अवगत होना पड़ता है, कभी यह विचार व्यक्त होते है कभी कनखियों से सिर्फ महसूस कर लेती हु, कभी कभी साथी समाजी सदस्यों के हाव भाव से समझने की कोशिश करती हु .. चाहे वह यात्रा हो चाहे कार्य क्षेत्र, एक महिला जीवन भर कुछ न कुछ सीखती है, हालांकि इसमें में सिर्फ महिला शब्द को ही प्राथमिकता नहीं दूंगी, मेरे अर्थ का सही मायना सभी पर लागू होता है, किन्तु जब में बात अपनी कर रही हु तो मेरी भावनाए वेदनाये संवेदनाये मेरी प्रतिकृति के रूप में ही शब्दों में प्रस्तुत होती है l
कब बचपन की सीढियों को पार कर व्यवहारिक जीवन के परिवार की सदस्य के रूप में अपने अस्तित्व को समझते समझते जीवन के इस मोड़ पर अपने अस्तित्व की पहचान करने की योग्यता के पहलुओ पर सोचने लग गयी, परिवार की अपनी मर्यादा होती है और समाज की वर्जनाये मुझे बहुत संबल भी देती है, कभी कभी मुझे ऐसा भी लगता है की समाज मुझे सुरक्षा देता है तब जब में निश्चिंत हो जाती हु, लेकिन कभी कभी मुझे ऐसा भी लगता है की समाज रुढ़िवादी है, लेकिन तब में यह सोच कर अपना अस्तित्व समेट लेती हु की ........जितना आज मेरे पास है शायद उतने की जरुरत में इस समाज के लाखो लोग प्रयासरत है,........... कितना अजीब लगता है न - मनुष्य वाकई एक सामजिक प्राणी है, अगर अकेला होता तो अपने अस्तित्व के साथ न्याय नहीं कर पाता, यह समाज ही है जो मुझे हमेशा प्रेरणा देता है, कभी घर में कभी यात्री के रूप में कभी मेरे कार्य क्षेत्र में l
इंसानी जरूरते पूरी होने के बाद अक्सर मानव मस्तिस्क अपनी दिमागी भूख को ज्यादा मुखर पाता है, इसी से गुरु शिष्य की अवधारणा को भी बल मिलता है, अब यह विषय बड़ा पेचीदा है की गुरु कौन और शिष्य कौन, जब बात ज्ञान की आये तो इस धरा धरती का हर अंश गुरु है और जब बात सीखने की आती है तो गुरु भी शिष्य है, में अपने आस पास की हर वस्तु विषय से सीखने की प्रक्रिया में अपना समय व्यतीत करती हु, कहते है जीवन बड़ा अनमोल है, लेकिन उस जीवन का कोई मोल नहीं जिस में सीखने की ललक न हो l
इसी कड़ी में जब मेने इस बात को महसूस किया तो दाता और ग्राही के सिद्धांत ने मुझे गुरु शिष्य की भावना से रूबरू किया, जहा गुरु गौण हो तो भी शिष्य की संवेदनाये अमिट रहती है, आम जीवन में हर क्षेत्र में हम एक दुसरे के समरक से कुछ न कुछ सीखने की कोशिश करते है, कभी कभी अनुभव बड़े कडवे होते है, किन्तु कडवाहट और मधुरता तो सिक्के के दो पहलुओ की तरह एक ही है, वो बात अलग है की सिक्का जिसके हाथ में होता है उसकी क्या भावना है और सिक्का जिसके हाथ में नहीं हो उसकी क्या दुर्भावना है, भावनाओं के इस संसार में शब्दों की प्रतिकृति अपने आगोश में बहुत सी संवेदनाओं को जन्म देती है, में भी इसी प्रक्रिया को बड़ी तत्परता से देखती हु .... कभी कभी जिंदगी बड़ी आतुर होती है कभी कभी जिंदगी नीरस भी हो जाती है .... यह ही तो संवेदना है .. जो प्राप्त अनुभवों और प्राप्त जानकारियों के ज्ञान के अनुसार निर्मित भी होती है बदलती भी है और नस्ट भी होती है ... जब बात समाज की चल रही है तो बात चलेगी संबंधो की, जिसकी कोई भी परिभाषा पूर्ण नहीं है, भाषा के संबंधो से लेकर संवाद के हर पहलु तक मानवीय विचार और विकार तक से रूबरू होना पड़ता है, साथ ही तीसरे पहलु से भी, लेकिन यह सभी तो हिसा है प्रक्रिया का, यह मायने नहीं रखते, मायने रखता है परिणाम, रोजमर्रा का समाज अंत में तो परिणाम प्रदान करता ही है, अर्थार्त प्रस्ठभूमि तो परिणाम है, अंतत: परिणाम ही हर भावना का घोतक है, और भावनाए भी तो निर्मित परिणाम से ही होती है
में जब अपने कार्य क्षेत्र में अपने सहयोगियों से रूबरू होती हु तब मुझे विभिन्न मानसिकताओं से रूबरू होने का मौका मिलता है, वैसे तो में अपने रोजमर्रा के सफ़र में भी इसी परिवेश से रूबरू होती हु, किन्तु मुझे संतुस्टी तभी मिलती है जब में अपनी योग्यता के समकक्ष समक्ष होती हु , यहाँ जीवन की अनेकानेक पंक्तिया सीखने की क्षुधा को शांत करती है, सबसे बड़ी बात की प्रायोगिक तौर पर सीखाने की ललक भी सदा संतुस्टी के द्वारा रोज एक नया ज्ञान देती है
मेरा समाज मेरा आज है , मेरा कल है... में रोज अपने समाज को देखती हु .. अब में इसे बदलना नहीं चाहती .. में सिर्फ इसे देखती हु .. सीखती हु ... और अपने आप को बदलती हु .. शायद एक दिन मुझे देख कर मेरा यह समाज बदल जाए ...
कहने को तो शब्दों में निर्विकार भाव से अनेकानेक भावो को प्रस्तुत किया जा सकता है, किन्तु जब भाव ही निर्विकार हो तो विकार तो पनप ही नहीं सकते .... इति